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[ कर्म सिद्धान्त
विवेचना सर्वप्रथम आचारांग एवं सूत्रकृतांग में मिलती है । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कुछ कर्म को वीर्य ( पुरुषार्थ ) कहते हैं, कुछ अकर्म को वीर्य ( पुरुषार्थ ) कहते हैं । ' इसका तात्पर्य यह है कि कुछ विचारकों की दृष्टि में सक्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है जबकि दूसरे विचारकों की दृष्टि में निष्क्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है । इस सम्बन्ध में महावीर अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए, यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि कर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा एवं अकर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा का अभाव ऐसा नहीं मानना चाहिए | वे अत्यन्त सीमित शब्दों में कहते हैं। प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म है । प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहकर महावीर यह स्पष्ट कर देते हैं कि अकर्म निष्क्रियता की अवस्था नहीं, वह तो सतत जागरुकता है । अप्रमत्त अवस्था या आत्म जागृति की दशा में सक्रियता अकर्म होती है जबकि प्रमत्त दशा या आत्म- जागृति के प्रभाव में निष्क्रियता भी कर्म ( बन्धन) बन जाती है । वस्तुत: किसी क्रिया का बन्धकत्व मात्र क्रिया के घटित होने में नहीं वरन् उसके पीछे रहे हुए कषाय भावों एवं राग-द्वेष की स्थिति पर निर्भर है ।
जैन दर्शन के अनुसार राग-द्व ेष एवं कषाय जो कि आत्मा की प्रमत्त दशा है किसी क्रिया को कर्म बना देते हैं । लेकिन कषाय एवं आसक्ति से रहित किया हुआ कर्म-अकर्म बन जाता है । महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्रस्रव या बन्धन कारक क्रियाएँ हैं वे ही अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधन बन जाती हैं । इस प्रकार जैन विचारणा में कर्म और अकर्म अपने बाह्य स्वरूप की अपेक्षा कर्ता के विवेक और मनोवृत्ति पर निर्भर होते हैं । जैन विचारणा में बन्धकत्व की दृष्टि से क्रियाओं को दो भागों में बांटा गया है । (१) इर्यापथिक क्रियाएँ ( अकर्म) और ( २ ) साम्परायिक क्रियाएँ ( कर्म या विकर्म) इर्यापथिक क्रियाएँ निष्काम वीतराग दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति की क्रियाएँ हैं जो बन्धन कारक नहीं है जबकि साम्परायिक क्रियाएँ आसक्त व्यक्ति की क्रियाएँ हैं जो बन्धन कारक हैं । संक्षेप में वे समस्त क्रियाएँ जो आस्रव एवं बन्ध का कारण हैं, कर्म हैं और वे समस्त क्रियाएँ जो संवर एवं निर्जरा का हेतु हैं
कर्म हैं । जैन दृष्टि में अकर्म या इर्यापथिक कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह रहित होकर मात्र कर्तृत्व अथवा शरीर, निर्वाह के लिए किया जाने वाला कर्म । जबकि कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह सहित क्रियाएँ । जैन दर्शन के अनुसार जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष और मोह से युक्त होता है बन्धन में डालता है और इसलिए वह कर्म है और जो क्रिया व्यापार राग-द्व ेष और मोह से रहित होकर कर्तव्य निर्वाह या शरीर निर्वाह के लिए किया जाता है वह बन्धन का कारण १ - सुत्रकृतांग १ / ८ /१-२ ।
२ - सूत्रकृतांग १/८/३ ।
३ - आचारांग १/४/२/१ ।
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