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________________ कर्म-विपाक ] [ १२३ सत्ता उस पर अपना वर्चस्व जमा लेती है और जीव ऐसा समझने लगता है मानो उसने अपना वर्चस्व खो दिया हो। उपशम और क्षपक श्रेणी : प्रारुढाः प्रशमश्रेणिं, श्रुतकेवलिनोऽपि च । भ्राम्यन्तेऽअनन्तसंसारमहो! दुष्टेन कर्मणा ॥ ग्यारहवें गुणस्थान उपशम श्रेणी पर चढ़े हुए श्रुतकेवली जैसे महापुरुष को भी यह दुष्ट कर्मसत्ता अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करवाती है। प्रमादवश चौदह पूर्वधारी महापुरुष भी अनंतकाल तक भव भ्रमण करते हैं। इससे स्पष्ट समझा जा सकता है कि कर्म का विपाक बड़े से बड़े व्यक्ति को भी भोगना पड़ता है । 'कर्म को शर्म नहीं यह कहावत यहां चरितार्थ होती है।। श्रेणी दो प्रकार की है, क्षपक श्रेणी और उपशम श्रेणी । आत्मा की उन्नति के क्रमश: चढ़ते हुए सोपानों को दर्शन की भाषा में चौदह गुणस्थान कहा गया है। आत्मा के अध्यवसायों की उत्तरोत्तर होने वाली विशुद्धि को श्रेणी कहा जाता है। पाठवें गणस्थान से जीव श्रेणी पर चढ़ना प्रारम्भ करता है। उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाली आत्मा मोहनीय कर्म की प्रकृतियों को उपशान्त करती जाती है, जबकि क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाली आत्मा उनका क्षय करती जाती है । आत्मा के विशुद्ध अध्यवसाय ही उसे श्रेणी पर चढ़ाते हैं । ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना से आत्मा में ऐसे शुभ अध्यवसाय उत्पन्न होते हैं । उपशम श्रेणी की अपेक्षा क्षपक श्रेणी अधिक विशुद्ध होती है। क्षपक श्रेणी पर चढ़ी हुई आत्मा आठवें गणस्थान से नौंवें और नौवें से दशवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर आती है। दसवें से वह लोभ के अंशों को क्षय कर सीधे बारहवें गुणस्थान पर चली जाती है। क्षपक श्रेणी वाला ग्यारहवें गुणस्थान पर नहीं जाता । उपशम श्रेणी वाला ही ग्यारहवें गुणस्थान पर जाता है । बारहवें गुणस्थान को क्षीणमोह गुणस्थान कहते हैं। यहां पहुंचकर आत्मा इतनी विकसित हो जाती है कि वह मोहनीय कर्म को सदा के लिए समूल नष्ट कर देती है। मोहनीय कर्म का क्षय होते ही ज्ञानावरणीय आदि अन्य घाती कर्म भी नष्ट हो जाते हैं और तेरहवें गुणस्थान पर पहुँचकर केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाली प्रात्मा बारहवें गुणस्थान पर नहीं जाती, वह ११वें उपशांतमोह गुणस्थान पर ही जाती है। इस गुणस्थान पर मोहनीय कर्म का उदय तो थोड़ा भी नहीं रहता, पर वह सत्ता में अवश्य रहता है। इस गुणस्थान पर चढ़ने वाले निश्चय ही एक बार फिर नीचे गिरते हैं । इस गुणस्थान को प्राप्त मुनि की यदि आयुष्य पूर्ण होने से मृत्यु हो जाय तो वह सर्वार्थ सिद्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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