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________________ १२२ ] [ कर्म सिद्धान्त बनती है। शुभ के उदयकाल में स्वतः ही शुभ संयोग प्राप्त हो जाते हैं और अशुभ के उदयकाल में अशुभ संयोग खड़े हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में यदि ज्ञान दृष्टि से गहन विचार किया जाय तो हर्ष और शोक अपने आप लुप्त हो जाते हैं। उदयकाल को समभाव से भोगने में ही जीव का वीरत्व है। बाँधने में बहादुरी दिखाना और भोगने में कमजोरी दिखाना ही जीव की कायरता है । उदयकाल में ही वीरत्व की आवश्यकता है, बंधकाल में तो मात्र इतनी सावधानी की आवश्यकता है कि नये कर्म न बंध जायें। दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात्, सुखं प्राप्य च विस्मितः । मुनिः कर्मविपाकस्य, जानन् परवशं जगत् ।। सम्पूर्ण जगत् कर्म विपाक के अधीन है, यह जानकर मुनि दुःख में न दीन बनते हैं और न सुख में विस्मित होते हैं । सुख-दुःख में समभाव पूर्वक रहना ही सच्ची जीवन साधना है । सुख में उन्मत्त होना और दुःख में निराश होना ही अज्ञान है। स्वयं द्वारा किये गये कर्म के फल को भोगने के समय दीनता क्यों ? ज्ञानी. तो यही सोचता है कि कर्म बांधते समय जब मैंने विचार नहीं किया, तब उसके फल को भोगने के समय दीनता क्यों दिखाऊँ ? ऐसे ज्ञानी कर्म विपाक के अधीन नहीं रहते, किन्तु ऐसे ज्ञानी बिरले ही होते हैं, इसीलिये सारे जगत् को कर्म विपाक के अधीन कहा गया है । ज्ञानी तो शुभ के उदय में भी विस्मित नहीं होता। वह तो जानता है कि तत्त्व दृष्टि से शुभ और अशुभ दोनों आत्मा को ढंकने वाले हैं । सूर्य काले बादलों में छिपे या सफेद बादलों में, उसके प्रकाश की मन्दता के तारतम्य में अवश्य अन्तर आता है, पर आखिर वह बादलों के पीछे छिपता तो है ही। इसी प्रकार शुभ और अशुभ दोनों आत्मा के गुणों को ढंकने वाले होने से अन्ततः त्याज्य ही हैं। साधक दशा में भले ही शुभ आदरणीय रहे, पर मोक्ष तो दोनों के क्षय से ही होगा। इसीलिये ज्ञानी शुभ या अशुभ किसी भी कर्म विपाक के अधीन नहीं रहते। वे तो मात्र तत्त्वचिंतन का पुरुषार्थ करते हैं और ऐसे ज्ञानी निश्चय ही परमार्थ को सिद्ध करते हैं। कर्म विपाक कितना भी शक्ति सम्पन्न क्यों न हो, यदि जीव अपने पुरुषार्थ को जाग्रत करे तो वह अवश्य कर्म क्षय कर सकता है। कर्म बलवान है तो क्या हुआ ? आखिर तो वह जड़ पुद्गल होने से अंधा ही है, जबकि जीव चेतना युक्त होने से दृष्टि वाला है। अंधे से दृष्टिवाला कैसे हार सकता है ? यदि जीव सच्चे मार्ग से पुरुषार्थ करे तो वह अवश्य कर्म सत्ता पर विजय प्राप्त कर सकता है। जीव वास्तव में अपने स्वरूप को नहीं जानता इसीलिये कर्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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