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________________ ११० ] [ कर्म सिद्धान्त इन अष्ट कर्मों की एक सौ अड़तालीस उत्तर-प्रकृतियाँ जैनागम में उल्लिखित हैं जिनमें ज्ञानावरणीय की पांच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्ठाईस, आयु की चार, नाम की तेरानवे, गोत्र की दो तथा अन्तराय की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं। उपरोक्त कर्म-परमाणुओं के भेद-प्रभेदों का सम्यक ज्ञान होने के उपरान्त यह सहज में कहा जा सकता है कि धाति-अघाति कर्म आत्मा के स्वभाव को आच्छादित कर जीव में ज्ञान, दर्शन व सामर्थ्य शक्ति को शीर्ण करते हैं तथा ये कर्म जीव पर भिन्न-भिन्न प्रकार से अपना प्रभाव डालते हैं जिसके फलस्वरूप संसारी जीव सुख-दुःख के घेरे में घिरे रहते हैं। इन अष्ट कर्मों के अतिरिक्त 'नोकर्म' का भी उल्लेख आगम में मिलता है । कर्म के उदय से होने वाला वह औदारिक शरीरादि रूप पुद्गल परिणाम जो आत्मा के सुख-दुःख में सहायक होता है, वस्तुतः 'नोकर्म' कहलाता है। ये 'नोकर्म' भी जीव पर अन्य कर्मों की भाँति अपना प्रभाव डाला करते हैं। जैन दर्शन की मान्यता है कि 'सकम्मूणा विप्यरिया सूवेई' अर्थात प्रत्येक प्राणी अपने ही कृत कर्मों से कष्ट पाता है। आत्मा स्वयं अपने द्वारा ही कर्मों की उदीर्णा करता है, स्वयं अपने द्वारा ही उनको गर्हा-पालोचना करता है और अपने कर्मों के द्वारा कर्मों का संवर-आस्रव का निरोध भी करता है। यह निश्चित है कि जैसा व्यक्ति कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है । ऐसा कदापि नहीं होता कि कर्म कोई करे और उसका फल कोई अन्य भोगे। इस दर्शन के अनुसार 'अप्पो वि य परमप्पो, कम्म विमुक्को यहोइ पुडं' अर्थात् प्रत्येक आत्मा कृत कर्मों का नाश करके परमात्मा बन सकता है। यह एक ऐसा दर्शन है जो प्रात्मा को परमात्मा बनने का अधिकार प्रदान करता है तथा परमात्मा बनने का मार्ग भी प्रस्तुत करता है किन्तु यहाँ परमात्मा के पुनः भवातरण की मान्यता नहीं है । वास्तव में सब आत्माएँ समान तथा अपने आप में स्वतन्त्र और महत्त्वपूर्ण हैं। वे किसी अखंड सत्ता का अंश रूप नहीं हैं। किसी कार्य का कर्ता यहाँ परकीय शक्ति को नहीं माना गया है। अतः जैनदर्शन कर्मफल देने वाला कोई अन्य विशेष चेतन व्यक्ति अथवा ईश्वर को नहीं मानता । फलस्वरूप प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार स्वयं कर्त्ता और उसका भोक्ता है। जैन दर्शन में कर्मबन्ध के पाँच मुख्य हेतु-मिथ्यात्व असंयम, प्रमाद, कषाय तथा योग (काय-मन-वचन की क्रिया)-उल्लिखित हैं। इनमें लिप्त रहकर जीव कर्म जाल में बुरी तरह से जकड़ा रहता है। इनसे मुक्त्यिर्थ जीव को अपने भावों को सदैव शुद्ध रखने के लिए कहा गया है क्योंकि कोई भी कार्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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