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________________ कर्म, कर्मबन्ध मौर कर्मक्षय ] [ १०६ दर्शनावरणीय कर्म : कर्म-शक्ति युक्त परमाणुओं का वह समूह जिसके द्वारा आत्मा का अनन्त दर्शन स्वरूप अप्रकट रहता है, दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है। इस कर्म के कारण प्रात्मा अपने सच्चे स्वरूप को पहिचानने में सर्वथा असमर्थ रहता है। फलस्वरूप वह मिथ्यात्व का प्राश्रय लेता है। मोहनीय कर्म : इस कर्म के अन्तर्गत वे कार्मण वर्गणाएं आती हैं जिनके द्वारा जीव में मोह उत्पन्न होता है । यह कर्म आत्मा के शान्ति-सुख-आनन्द स्वभाव को विकृत करता है । मोह के वशीभूत जीव स्व-पर का भेद-विज्ञान भूल जाता है। समाज में व्याप्त संघर्ष इसी के कारण हैं । अन्तराय कर्म : आत्मा में व्याप्त ज्ञान-दर्शन-आनन्द के अतिरिक्त अन्य सामर्थ्य शक्ति को प्रकट करने में जो कर्म परमारणु बाधा उत्पन्न करते हैं, वे सभी अन्तराय कर्म के अन्तर्गत आते हैं । इस कर्म के कारण ही आत्मा में व्याप्त अनन्त शक्ति का ह्रास होने लगता है। प्रात्म-विश्वास की भावनाएँ, संकल्प शक्ति तथा साहस-वीरता आदि मानवीय गुण प्रायः लुप्त हो जाते हैं । नाम कर्म: इस कर्म के द्वारा जीव एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेता है तथा उसके शरीरादि का निर्माण भी इन्हीं कर्म-वर्गणाओं के द्वारा हुमा करता है। गोत्र कर्म: ____ कर्म परमाणुओं का वह समूह जिनके द्वारा यह निर्धारित होता है कि जीव किस गोत्र, कुटुम्ब, वंश, कुल-जाति तथा देश आदि में जन्म ले, गोत्र कर्म कहलाता है । ये कर्म-परमाणु जीव में अपने जन्म की स्थिति के प्रतिमानस्वाभिमान तथा ऊँच-नीच-हीन-भाव आदि का बोध कराते हैं। आयु कर्म : इस कर्म के माध्यम से जीव की आयु निश्चित हुआ करती है । स्वगमनुष्य-तिर्यञ्च-नरक गति में कौनसी गति जोव को प्राप्त हो, यह इसी कर्म पर निर्भर करता है। वेदनीय कर्म : इस कर्म के द्वारा जीव को सुख-दुःख की वेदना का अनुभव हुआ करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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