SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ ] [ कर्म सिद्धान्त 1 सोचना या बहाना करना गलत होगा । अपने उत्तरदायित्व को हमें स्वीकारना होगा । हमें यह कहना होगा कि अपने आचरण और व्यवहार का सारा उत्तरदायित्व हम पर है । " उत्तरदायी कौन" की मीमांसा में मैंने पहले कहा था कि भिन्न-भिन्न क्षेत्र के व्यक्ति भिन्न-भिन्न तत्त्वों को उत्तरदायी बताते हैं । मनोवैज्ञानिक, रासायनिक, शरीरशास्त्री और कर्मवादी - अपने - अपने दर्शन के अनुसार पृथक्-पृथक् तत्त्वों को उत्तरदायी कहते हैं । पर ये सब उत्तर सापेक्ष हैं । शरीर में उत्पन्न होने वाले रसायन हमें प्रभावित करते हैं, नाड़ी-संस्थान हमें प्रभावित करता है, वातावरण और परिस्थिति हमें प्रभावित करती है । ये सब प्रभावित करने वाले तत्त्व हैं, पर उत्तरदायित्व किसी एक का नहीं है । किसका होगा ? ये सब अचेतन हैं । काल अचेतन है, पदार्थ का स्वभाव अचेतन है, नियति और कर्म श्रचेतन हैं। हमारा ग्रन्थितंत्र और नाड़ीतंत्र भी अचेतन है । परिस्थिति और वातावरण भी अचेतन है । पूरा का पूरा तंत्र प्रचेतन है, फिर उत्तरदायित्व कौन स्वीकारेगा ? अचेतन कभी उत्तरादायी नहीं हो सकता । उसमें उत्तरदायित्व का बोध नहीं होता । वह दायित्व का निर्वाह भो नहीं करता । दायित्व का प्रश्न चेतना से जुड़ा हुआ है । चेतना के संदर्भ में ही उस पर मीमांसा की जा सकती है । जहाँ ज्ञान होता है वहाँ उत्तरदायित्व का प्रश्न आता है । जब सब अंधे ही अंधे हैं, वहाँ दायित्व किसका होगा । अंधों के साम्राज्य में दायित्व किसका ? सब पागल ही पागल हों तो दायित्व कौन लेगा ? पागलों के साम्राज्य में जो पागल नहीं होता, उसे भी पागल बन जाना पड़ता है । यदि वह पागल नहीं बनता है तो सुख से जी नहीं सकता | दायित्व की बात केवल चेतना जगत् में आती है जहाँ चेतना का विवेक और बोध होता है और दायित्व निर्वाह की क्षमता है । हमारा पुरुषार्थ चेतना से जुड़ा हुआ है । पुरुषार्थ चेतना से निकलने वाली वे रश्मियाँ हैं जिनके साथ दायित्व का बोध और दायित्व का निर्वाह जुड़ा हुआ है । 1 हमारा पुरुषार्थ उत्तरदायी होता है । इसको हम अस्वीकार नहीं कर सकते । हमें अत्यन्त ऋजुता के साथ अपने व्यवहार और आचरण का दायित्व ढ़ लेना चाहिए। उसमें कोई झिझक नहीं होनी चाहिए । जब तक हम अपने आचरण और व्यवहार के उत्तरदायित्व का अनुभव नहीं करेंगे तब तक उनमें परिष्कार भी नहीं करेंगे । हमारे समक्ष दो स्थितियाँ हैं— एक है अपरिष्कृत आचरण और व्यवहार और दूसरी है परिष्कृत आचरण और व्यवहार । जब तक उत्तरदायित्व का अनुभव नहीं करेंगे तब तक प्राचरण और व्यवहार अपरिष्कृत ही रहेगा, अपरिमार्जित और पाशविक ही रहेगा । वह कभी ऊँचा या पवित्र नहीं बनेगा । वह कभी स्वार्थ की मर्यादा से मुक्त नहीं बनेगा । भगवान् महावीर ने कर्मवाद के क्षेत्र में जो सूत्र दिए, मैं दार्शनिक दृष्टि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy