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________________ कर्म और पुरुषार्थ ] [ १०१ मान्यताएँ और धारणाएँ गलत होती हैं तब उनके परिणामों से उबारने वाला कोई नहीं होता। "सब कुछ कर्म ही करता है"--यह अत्यन्त भ्रान्त धारणा है । आदमी ने सापेक्षता को विस्मृत कर दिया । सब कुछ कर्म से नहीं होता। __ काल, स्वभाव, नियति, पुराकृत [हमारा किया हुआ] और पुरुषार्थये पाँच तत्त्व हैं । इन्हें समवाय कहा जाता है । ये पाँचों सापेक्ष हैं। यदि किसी एक को प्रधानता देंगे तो समस्याएँ खड़ी हो जाएंगी। काल प्रकृति का एक तत्त्व है । प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव अपना-अपना होता है। नियति सार्वभौम नियम है, जागतिक नियम है। यह सब पर समान रूप से लागू होता है । व्यक्ति स्वयं कुछ करता है। मनसा, वाचा, कर्मणा, जाने-अनजाने, स्थूल या सूक्ष्म प्रवृत्ति के द्वारा जो किया जाता है, वह सारा का सारा अंकित होता है। जो पुराकृत किया गया है, उसका अंकन और प्रतिबिम्ब होता है। प्रत्येक क्रिया अंकित होती है और उसकी प्रतिक्रिया भी होती है। क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धान्त कर्म की क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धान्त है। करो, उसकी प्रतिक्रिया होगी । गहरे कुए में बोलेंगे तो उसकी प्रतिध्वनि अवश्य होगी। ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है । बिम्ब का प्रतिबिम्ब होता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। यह सिद्धान्त है दुनिया का । प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति का परिणाम होता है और उसकी प्रवृत्ति होती है । कर्म अपना किया हुआ होता है । कर्म का कर्ता स्वयं व्यक्ति है और परिणाम उसकी कृति है, यह प्रतिक्रिया के रूप में सामने आती है । इसलिए इसे कहा जाता है-पुराकृत । इसका अर्थ है- पहले किया हुआ। पाँचवाँ तत्त्व है-पुरुषार्थ । कर्म और पुरुषार्थ-दो नहीं, एक ही हैं । एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। इनमें अन्तर इतना सा है कि वर्तमान का पुरुषार्थ "पुरुषार्थ" कहलाता है और अतीत का पुरुषार्थ "कर्म" कहलाता है। कर्म पुरुषार्थ के द्वारा ही किया जाता है, कर्तृत्व के द्वारा ही किया जाता है। आदमी पुरुषार्थ करता है । पुरुषार्थ करने का प्रथम क्षण पुरुषार्थ कहलाता है और उस क्षण के बीत जाने पर वही पुरुषार्थ कर्म नाम से अभिहित होता है। . ये पाँच तत्त्व हैं । पाँचों सापेक्ष हैं। सर्व शक्तिमान एक भी नहीं है। सब की शक्तियाँ सीमित हैं, सापेक्ष हैं । इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि हम स्वतंत्र भी हैं और परतंत्र भी हैं । __दूसरा प्रश्न है-उत्तरदायी कौन ? काल, स्वभाव, नियति और कर्मये सब हमें प्रभावित करते हैं, पर चारों उत्तरदायी नहीं हैं। उत्तरदायी है व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ, अपना कर्तृत्व । आदमो किसी भी व्यवहार या पाचरण के दायित्व से छूट नहीं सकता । यह बहाना नहीं बनाया जा सकता कि "योग ऐसा ही था, कर्म था, नियति और स्वभाव था, इसलिए ऐसा घटित हो गया।" ऐसा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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