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________________ ५२ प्रमेयकमलमार्त्तण्ड २ - " प्रभाचन्द्रस्तु न्याय कुमुदचन्द्रे विभाषा सद्धर्मप्रतिपादको प्रन्थविशेषः तां विदन्ति अधीयते वा वैभाषिकाः इत्युवाच ।” ( पृ० ७९ ) ये दोनों अवतरण न्यायकुमुदचन्द्रमें क्रमशः पृ० ४३८ पं० १३ तथा पृ० ३९० पं० १ में पाए जाते हैं । इसके सिवाय न्यायावतारटिप्पणमें अनेक स्थानोंपर न्यायकुमुदचन्द्रका प्रतिबिम्ब स्पष्टरूपसे झलकता है । मल्लिषेण और प्रभाचन्द्र-आ० हेमचन्द्रकी अन्ययोगव्यवच्छेदिका के ऊपर मलिषेण की स्याद्वादमंजरी नामकी सुन्दर टीका मुद्रित है । ये श्वेताम्बर सम्प्रदाय के नागेन्द्रगच्छीय श्रीउदयप्रभसूरिके शिष्य थे । स्याद्वादमंजरीके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि इन्होंने शक संवत् १२१४ ( ई० १२९३ ) मैं दीपमालिका शनिवार के दिन जिनप्रभसूरिकी सहायता से स्याद्वादमंजरी पूर्ण की थी । स्याद्वादमंजरीकी शब्दरचनापर न्यायकुमुदचन्द्रका एक विलक्षण प्रभाव है । मलिषेणने का ० १४ की व्याख्या में विधिवादकी चर्चा की है । इसमें उन्होंने विधिवादियों के आठ मतोंका निर्देश किया है । साथही साथ अपनी ग्रन्थमर्यादाके विचारसे इन मतोंके पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षोंके विशेष परिज्ञानके लिए न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ देखनेका अनुरोध निम्नलिखित शब्दोंमें किया है" एतेषां निराकरणं सपूर्वोत्तरपक्षं न्यायकुमुदचन्द्रादवसेयम् ।” इस वाक्यसे स्पष्ट हो जाता है कि मल्लिषेण न केवल न्यायकुमुदचन्द्रके विशिष्ट अभ्यासी ही थे किन्तु वे स्याद्वादमंजरीमें अचर्चित या अल्पचर्चित विषयोंके ज्ञानके लिए . न्याय कुमुदचन्द्रको प्रमाणभूत आकरग्रन्थ मानते थे । न्याय कुमुदचन्द्रमें विधिवादकी विस्तृत चरचा पृ० ५७३ से ५९८ तक है । गुणरत और प्रभाचन्द्र- विक्रमकी १५ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तपागच्छमें श्रीदेवसुन्दरसूरि एक प्रभावक आचार्य हुए थे । इनके पट्टशिष्य गुणनसूरिने हरिभद्रकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' पर तर्करहस्यदीपिका नामकी बृहद्वृत्ति लिखी है । गुणरत्नसूरिने अपने क्रियारत्नसमुच्चय ग्रन्थकी प्रतियोंका लेखनकाल विक्रम संवत् १४६८ दिया है । अतः इनका समय भी विक्रमकी १५ वीं सदीका उत्तरार्ध सुनिश्चित है । गुणरत्नसूरिने षड्दर्शनसमुच्चय टीकाके जैनमत निरूपणमें मोक्षतत्त्वका सविस्तर विशद विवेचन किया है । इस प्रकरणमें इन्होंने खाभिमत मोक्षखरूपके समर्थन के साथही साथ वैशेषिक, सांख्य, वेदान्ती तथा बौद्धोंके द्वारा माने गए मोक्षरूपका बड़े विस्तारसे निराकरण भी किया है। इस पर खंडन के भागमें न्याय कुमुदचन्द्रका मात्र अर्थ और भावकी दृष्टिसे ही नहीं, किन्तु शब्दर - चना तथा युक्तियों के कोटिक्रमकी दृष्टिसे भी पर्याप्त अनुसरण किया गया है । इस प्रकरण न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि इससे न्याय - कुमुदचन्द्र पाठकी शब्दशुद्धि करने में भी पर्याप्त सहायता मिली है । इसके १ देखो - न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ८१६ मे ८४७ तकके टिप्पण । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003838
Book TitlePramey Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrakumar Shastri
PublisherSatya Bhamabai Pandurang
Publication Year1941
Total Pages920
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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