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प्रस्तावना
आ० मलयगिरि कहते हैं कि-जब नयवाक्यमें स्यात्पदका प्रयोग किया जाता है तब ‘स्यात्' शब्दसे सूचित होनेवाले अन्य अशेषधर्मोको भी विषय करनेके कारण नयवाक्य नयरूप न होकर प्रमाणरूप ही हो जायगा। इनके मतसे जो नय एक धर्मको अवधारणपूर्वक विषय करके इतरनयसे निरपेक्ष रहता हैं वही नय कहा जा सकता है। इसीलिए इन्होंने सभी नयोंको मिथ्यावाद कहा है। मलयगिरिके कोषमें सुनय नामका कोई शब्द ही नहीं है। जब स्यात्पदका प्रयोग किया जाता है तब वह प्रमाणकोटिमें पहुँचेगा तथा जब नयान्तरनिरपेक्ष रहेगा तब वह नयकोटिमें जाकर मिथ्यावाद हो जायगा । इन्होंने अकलंकदेवके इस तत्त्वको मद्देनजर नहीं रखा कि-नयवाक्यमें स्यात् शब्दसे सूचित होनेवाले अशे. षधर्मोका मात्र सद्भाव ही जाना जाता है, सो भी इसलिए कि कोई वादी उनका ऐकान्तिक निषेध न समझ ले। प्रमाणवाक्यकी तरह नयवाक्यमें स्याच्छब्दसे सूचित होनेवाले अशेषधर्म प्रधानभावसे विषय नहीं होते। यही तो प्रमाण और नयमें भेद है कि-जहाँ प्रमाणमें अशेष ही धर्म एकरूपसे-अखण्डभावसे विषय होते हैं वहाँ नयमें एकधर्म मुख्य होकर अन्य अशेषधर्म गौण हो जाते हैं, 'स्यात्' शब्दसे मात्र उनका सद्भाव सूचित होता रहता है। दुर्नेयमें एकधर्म ही विषय होकर अन्य अशेषधर्मोका तिरस्कार हो जाता है। अतः दुर्नयसे सुनयका पार्थक्य करनेके लिए सुनयवाक्यमें स्यात्पदका प्रयोग आवश्यक है । मलयगिरिके द्वारा की गई अकलंककी यह समालोचना उन्हीं तक सीमित रही। हेमचन्द्र आदि सभी आचार्य अकलंकके उक्त प्रमाण, नय और दुर्नयके विभागको निर्विवादरूपसे मानते आए हैं। इतना ही नहीं, उपाध्याय यशोविजयने मलगिरिकी इस समालो. चनाका सयुक्तिक उत्तर गुरुतत्त्वविनिश्चय ( पृ० १७ B.) में दे ही दिया है। उपाध्यायजी लिखते हैं कि यदि नयान्तरसापेक्ष नयका प्रमाणमें अन्तर्भाव किया जायगा तो व्यवहारनय तथा शब्दनय भी प्रमाण ही हो जायगे । नयवाक्यमें होनेवाला स्यात्पदका प्रयोग तो अनेक धर्मोंका मात्र द्योतन करता है, वह उन्हें विवक्षितधर्मकी तरह नयवाक्यका विषय नहीं बनाता । इसलिए नयवाक्यमें मात्र स्यात्पदका प्रयोग होनेसे वह प्रमाण कोटि में नहीं पहुँच सकता। - देवभद्र और प्रभाचन्द्र-देवभद्रसूरि मलधारिगच्छके श्रीचन्द्रसूरिके शिष्य थे। इन्होंने न्यायावतारटीका पर एक टिप्पण लिखा है। श्रीचन्द्रसूरिने वि० संवत् ११९३ (सन् ११३६) के दिवालीके दिन 'मुनिसुव्रतचरित्र' पूर्ण किया था। अतः इनके साक्षात् शिष्य देवभद्रका समय भी करीब सन् ११५० से १२०० तक सुनिश्चित होता है। देवभद्रने अपने न्यायावतार टिप्पणमें प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्रके निम्नलिखित दो अवतरण लिए हैं
१-"परिमण्डलाः परमाणवः तेषां भावः .. पारिमण्डल्यं वर्तुलवम्, न्यायकुमुंदचन्द्रे प्रभाचन्द्रेणाप्येवं व्याख्यातत्वात् ।” (पृ. २५)
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१ जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास पृ० २५३ ।
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