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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला शुद्ध पुद्गलपरमाणुमें पाँच ही गुणोंकी संभावना और उन, गुणोंकी शक्तियों में 'धर्मपर्याय' का कथनतत्राणौ परमे स्थिताश्च रसरूपस्पर्शगन्धात्मका: एकैकद्वितयैकभेदवपुषः पर्यायरूपाश्च ये । पंचैवेति सदा भवन्ति नियमोऽनन्ताश्च तच्छक्तयः पर्यायः क्षतिवृद्धिरूप इति तासां धर्मसंज्ञोऽमलः ॥२६॥
अर्थ-परमाणुमें सामान्यरूपसे स्थित रूप, रस, स्पर्श और गंध इन चार गुणों में से एक रूप, एक रस, दो स्पर्श और एक गंध इस तरह पांच ही गुण नियमसे सदा होते हैं। और जो अन्वय पर्यायरूप हैं। इन गुणोंकी भी अविभागी प्रतिच्छेदरूप अनन्तशक्तियाँ हैं। इन शक्तियों में हानि तथा वृद्धिरूप ( आगम-प्रमाणसे सिद्ध अगुरुलघुगुणोंके निमित्तसे होनेवाली षस्थानपतित हानि और वृद्धिस्वरूप ) 'धर्मसंज्ञक' शुद्ध पर्याय होती हैं। ____भावार्थ-एक शुद्ध पुद्गलपरमाणुमें, जैसा कि पहिले पूर्व पद्यकी व्याख्यामें कह आये हैं, उक्त बीस गुणोंमेंसे पांच ही गुण होते हैं--पांच रूपोंमेंसे कोई एक रूप, पाँच रसोंमें से कोई एक रस आठ स्पर्शों में से दो स्पर्श तथा दो गंधों में से कोई एक गंध । शेषके कोई गुण नहीं होते; क्योंकि परमाणु अवयव रहित है. इसलिये उसमें अनेकरस, अनेकरूप और अनेक गंध संभव नहीं हैं। किन्तु पपीता, मयूर, अनुलेपन आदि सावयव स्कन्धोंमें ही वे देखे जाते हैं। परमाणुमें जो दो स्पर्श होते हैं वे हैंशीत-रूक्ष अथवा शीत-स्निग्ध, उष्ण-रूक्ष या उष्ण-स्निग्ध । क्योंकि इन दो दो स्पर्शो में परस्पर कोई विरोध नहीं है। शेषके
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