SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका उ०-इसका उदय सम्यग्दर्शनका सहचारी है, इसलिये इसे उपचारसे 'सम्यक्त्व' कहते हैं। ४६०.३०-सम्यक् मिथ्यात्व किसको कहते हैं ? .. उ.--जिसके उदयसे एक साथ देव-कुदेव, शास्त्र-कुशास्त्र और गुरु-कुगुरु में श्रद्धा होती है, वह सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति है। ४६१. प्र०-मिथ्यात्वकर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस कर्मके उदयसे देव, शास्त्र, गुरुमें अश्रद्धा होती है वह मिथ्या. त्वकर्म है। ___४६२. प्र०-चारित्र मोहनीय कर्म किसको कहते हैं ? उ०-पापके कार्योंका त्यागकर देनेको चारित्र कहते हैं। उस चारित्रको जो मोहित करता है अर्थात् ढांकता है, उसे चारित्र मोहनीय कर्म कहते हैं । - ४६३. प्र०-चारित्र मोहनीयके कितने भेद हैं ? उ०-दो भेद हैं-कषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय । कषाय वेदनीयके सोलह भेद हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, माना, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ तथा नोकषाय वेदनीयके नौ भेद हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा। ४६४. प्र०-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ किसको कहते हैं ? उ०-अनन्त भवोंको बांधना हो जिसका स्वभाव है ऐसे क्रोध, मान, माया, लोभको अनन्तानुबन्धी क्रोध मान, माया, लोभ कहते हैं। सारांश यह है कि इन कषायोंका संस्कार अनन्त भवों तक माना गया है । ये चारों ही कषाय सम्यक्त्व और चारित्र दोनोंको घाततो हैं। ४६५. प्र०-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ किसको कहते हैं ? उ.-अप्रत्याख्यान संयमासंयम या देश चारित्रको कहते हैं। उसको जो आवरण करता है उसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ कहते हैं। ४६६. प्र.-प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ किसको कहते हैं ? उ०-प्रत्याख्यान कहते हैं संयम अथवा महाव्रतको । उसको जो आवरण करते हैं वे प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं। ४६७. प्र०--संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ किसको कहते हैं ? Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy