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________________ ६६ करणानुयोग-प्रवेशिका उ-जो जोवके सुख और दुःखके अनुभवनका कारण है, उसको वेदनीय कर्म कहते हैं। ४४२. प्र०-मोहनीय कर्म किसको कहते हैं ? उ०-जो जीवको मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है। ४४३. प्र०-आयु कर्म किसको कहते हैं ? उ०-जिसके निमित्तसे जीव नारक आदि भवोंमें जाता है तथा उसमें अमुक समय तक रुका रहता है, वह आय कर्म है। ४४४. प्र०-नाम कर्म किसको कहते हैं ? उ०-जो शरीर आकार आदि नाना प्रकारकी रचना करता है, वह नामकर्म है। ४४५. प्र०- गोत्र कर्म किसको कहते हैं ? उ०-जो जीवको उच्च अथवा नीच कुल में उत्पन्न करता है, वह गोत्र कर्म कहा जाता है। ४४६. प्र०-अन्तराय कर्म किसको कहते हैं ? उ०-जो दान, लाभ, भोग, उपभोग आदि में विघ्न करनेमें समर्थ है, उसको अन्तराय कर्म कहते हैं। ४४७. प्र.-ज्ञानावरण कर्मके कितने भेद हैं ? उ०-पांच भेद हैं-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण । ४४८. प्र०-दर्शनावरण कर्मके कितने भेद हैं ? उ.-नौ भेद हैं-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण। ४४९. प्र०-निद्रानिद्रा किसको कहते हैं ? उ.-जिसके तोव उदयसे जीव वृक्षकी चोटीपर भी गाढ़ निद्रामें सोता है, उसे निद्रानिद्रा कहते हैं। . ४५०. प्र०-प्रचलाप्रचला किसको कहते हैं ? उ.-जिसके तीव्र उदयसे जीव बैठा या खड़ा-खड़ा सो जाता है, सोते हुए मुंहसे लार गिरती है, शरीर कांपता है, उसे प्रचलाप्रचला कहते हैं। ४५१. प्र०-स्त्यानगृद्धि किसको कहते हैं ? उ०-जिसके तोव उदयसे उठाये जानेपर भी प्राणी पुनः सो जाता है, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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