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________________ करणानुयोग-प्रवेशिका ४१७. प्र०-उपशम क्षेणीके चारों गुणस्थानोंका अन्तरकाल कितना .. उ०-नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है । जो इस प्रकार है-बहुतसे जीव अपूर्वकरण गुणस्थानमें गये और उसका काल समाप्त होनेपर कुछ ऊपर चढ़ गये, कुछ नीचे गिर गये और एक समय तक अपूर्वकरणमें कोई भी नहीं रहा। उसके बाद दूसरे समयमें सातवेंसे चढ़कर और नौवेंसे गिरकर अनेक जीव अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती हो गये। इस प्रकार एक समय जघन्य अन्तर हुआ। इसी तरह शेष तीन गुणस्थानोंका भी अन्तर जानना चाहिये। उपशम श्रेणीके चारों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व है, क्योंकि अधिकसे अधिक वर्ष पृथक्त्व तक कोई जोव उपशामक श्रेणोके मुणस्थानोंमेंसे किसो गुणस्थान में नहीं रह सकता । चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि एक अपूर्वकरण उपशामक जीव ऊपरके गुणस्थानोंमें चढ़कर और वहाँसे गिरकर पुनः अपूर्वकरण उपशामक हो गया। इस प्रकार अन्तर्महर्तकाल जघन्य अन्तर हुआ, क्योंकि अनिवृत्तिकरणसे लगाकर पुनः अपूर्वकरण उपशामक होनेके पूर्व जो नौवें, दसवें, ग्यारहवें और पुनः ग्यारहवेंसे दसवें और नौवें गुणस्थानमें आना होता है सो इन पांचों ही गुणस्थानोंका काल एकत्र करनेपर भी अन्तर्मुहुर्त ही होता है। इसी प्रकार शेष तीनों उपशामकोंका भी एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल समझ लेना चाहिये। चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन है। सो एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवको सम्यक्त्व उत्पन्न करके फिर संयमी बनाकर फिर उपशम श्रेणोके योग्य अप्रमत्तसंयत बनकर उपशम श्रेणोपर चढ़ा और वहाँसे गिरकर मिथ्यात्वमें जाकर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक भ्रमण करके पुनः सम्यग्दष्टि हो, संयम धारण करके उपशम श्रेणोपर चढ़ा। इस तरह करनेसे उस्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन होता है। ४२८. प्र०-चारों क्षपक और अयोगकेवली गुणस्थानका अन्तरकाल .. कितना है ? उ०-नाना जीवोंको अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छै मास है। क्योंकि अधिकसे अधिक एक सौ आठ अपूर्वकरण क्षपक एक हो समयमें सबके सब अनिवृत्तिकरण क्षपक हो गये और एक समयके लिए एक भी जीव अपूर्वकरण क्षपक नहीं रहा। दूसरे समयमें पुनः बहुतसे जोव अपूर्वकरण क्षपक हो गये । इस तरह जघन्य अन्तर एक समय होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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