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________________ करणानुयोग- प्रवेशिका ६३ ४१९. प्र० - प्रमत्त और अप्रमत्त संयत जीव कितने काल तक होते हैं ? उ०- नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा होते हैं । इनका एक क्षणके लिये भो कभी अभाव नहीं होता। एक जीवको अपेक्षा प्रमत्त और अप्रमत्त संयतका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । जो इस प्रकार है - कोई अप्रमत्तसंयत एक समय आयु शेष रहने पर प्रमत्तसंयत हो गया और एक समय तक प्रमत्तसंयत रहकर मरकर देव हो गया। इसी तरह कोई प्रमतसंयत एक समय आयु शेष रहने पर अप्रमत्त संयत हो गया और एक समय तक अप्रमत्त संयत रहकर मरकर देव हो गया । इस तरह प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानका जघन्य काल एक समय होता है । एक अप्रमत्तसंयत प्रमत्तसंयत होकर और अन्तर्मुहूर्त तक वहां रहकर मिथ्यादृष्टि हो गया और एक प्रमत्तसंयत अप्रमत्त संयत होकर और एक अन्तर्मुहूर्त तक रहकर प्रमत्तसंयत हो गया । इस तरह से दोनोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है । ४२०. प्र० - चारों उपशम श्रेणीवाले जीव कितने काल तक होते हैं ? उ०- नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समयतक और उत्कृष्टसे अन्तहोते हैं । जो इस प्रकार है-उपशम श्रेणी से उतरनेवाले अनिवृत्तिकरण उपशामक जीव एक समय आयु शेष रहनेपर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती हुए और एक समय तक वहां रहकर दूसरे समय में मरे और देव हो गये । इस तरह अपूर्वकरण उपशामकका जघन्य काल एक समय हुआ । इसी तरह शेष तीनों उपशामकोंका जघन्यकाल भी जानना । विशेष इतना है कि अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशामक जीवों का एक समय काल उपशमश्रेणीपर चढ़ते और उतरते हुए दोनों प्रकारसे होता है किन्तु उपशान्तकषाय उपशामकका एक समय काल चढ़ते हुए जीवों की अपेक्षा हो होता है । उत्कृष्ट काल इस प्रकार है- अनेक आप्रमत्त संयत जीव तथा उपशम श्रेणीसे उतरनेवाले अनेक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानी जीव अपूर्वकरण उपशामक हुए। जब तक वे उस गुणस्थानमें रहे तब तक अन्य भी चढ़ते-उतरते हुए जीव अपूर्वकरण गुणस्थान में आते रहे और अन्तर्मुहूर्त काल तक बने रहे । इसके पश्चात् अपूर्वकरण में कोई भी जीव नहीं रहा । इसी तरह तीनों उपशामकोंका उत्कृष्टकाल समझ लेना चाहिये । एक जीवकी अपेक्षा चारों उपशामकों का जघन्यकाल एक समय है जो उक्त एक समय कालको तरह होता है । उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है क्योंकि अपूर्वकरण आदि चारों गुणस्थानों में से प्रत्येकमें एक जीव अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहर सकता है । ४२१. प्र० - चारों क्षपकों और अयोग केवलीका कितना काल है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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