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________________ ६० करणानुयोग-प्रवेशिका रूप पहले बतलाया है । उपपाद उत्पन्न होने के प्रथम समय में होता है । इन अवस्थाओंके द्वारा जीवने जितने क्षेत्रमें गमानागमन वगैरह किया हो उतना उसका स्पर्श होता है । ४१०. प्र०- - सम्यग्मिथ्यादृष्टी और असंयत सम्यग्दृष्टी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? उ०- स्वस्थानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है और विहारवत्स्वस्थान, वेदना कषाय और वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किया है जो कि मेरुके मूलसे ऊपर छै राजु और नीचे दो राजु प्रमाण है तथा उपपादकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टी जीवोंने कुछ कम छै बटे चौदह राजु भाग स्पर्श किया है; क्योंकि असंयत सम्यग्दृष्टी जीवोंका उपपाद क्षेत्र इससे नीचे नहीं है । ४११. प्र० - संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? उ०- लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र स्पर्श किया है और मारणान्तिक समुद्घात अवस्था में कुछ कम छै बटे चौदह राजु क्षेत्र स्पर्श किया है । ४१२. प्र० - प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? उ०- लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है किन्तु सयोगकेवलियोंने लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है । ४१३. प्र० - मिथ्यादृष्टी जोव कितने काल तक होते हैं ? उ०- नाना जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टी सदा रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा तीन प्रकार हैं- अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त । अभव्य मिथ्यदृष्टीका काल अनादि अनन्त है क्योंकि अभव्यके मिथ्यात्वका आदि और अन्त नहीं होता । भव्य जीवके मिथ्यात्वका काल अनादि सान्त भी होता है और सादि सान्त भी होता है । सादि सान्त मिथ्यात्वका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है क्योंकि कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टी अथवा असंयत सम्यग्दृष्टी, अथवा संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और अन्तर्मुहूर्त काल तक मिथ्यात्व में रहकर पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको या असंयत सम्यक्त्वको या संयमासंयमको अथवा अप्रमत्त संयमको प्राप्त कर सकता है तथा एक जोवकी अपेक्षा सादि सान्त मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन है । क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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