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करणानुयोग-प्रवेशिका उ.-सयोगकेवली जीवोंकी संख्या आठ लाख, अट्ठानबे हजार, पाँच सौ दो है।
४०४. प्र०-आयोगकेवली जीव कितने हैं ?
उ०-अयोगकेवली जीवोंका प्रमाण क्षपक श्रेणोवाले जीवोंके बराबर ही होता है।
४०५. प्र०-मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? उ.-सर्वलोकमें रहते हैं। ४०६. प्र०-सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक
प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? उ०-लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। किन्तु इतना विशेष है कि प्रतर समुद्घात करनेवाले सयोगकेवली लोकके असंख्यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्रमें और लोकपुरण समुद्घात करनेवाले सयोगकेवली सर्वलोकमें रहते हैं।
४०७. प्र०-मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? उ०-सर्वलोक स्पर्श किया है। ४०८. प्र०-सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ?
उ०-लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है और विहारवत्स्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात तथा वैक्रियिक समुद्घातगत सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रको स्पर्श किया है और मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले सासादन सम्यग्दृष्टी जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम बारह भाग प्रमाण क्षेत्रको स्पर्श किया है। जो इस प्रकार है-सुमेरु पर्वतके मूल भागसे लेकर ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथिवी तक सात राजु होते हैं और नोचे छठो पृथिवो तक पाँच राजु होते हैं। उन दोनोंको मिला देनेसे सासादान सम्यग्दृष्टी जीवोंके मारणान्तिक क्षेत्रकी लम्बाई कुछ कम बारह राजु होतो है ।
४०९. प्र०-विहारवत्स्वस्थान वगैरहसे क्या अभिप्राय है ?
उ०-स्वस्थान, समुद्घात और उपपादके भेदसे जब जीवोंकी अवस्था तीन प्रकारको होती है। उनमें स्वस्थानके दो प्रकार हैं-एक स्वस्थानस्वस्थान और दूसरा विहारवत्स्वस्थान । अपने उत्पन्न होनेके ग्राम आदिमें सोना, उठना-बैठना वगैरह स्वस्थानस्वस्थान है और अपने उत्पत्ति स्थानको छोड़कर अन्यत्र आना-जाना आदि विहारवत्स्वस्थान है। सात समुद्घातोंका स्व४०७. षट्खण्डागम, पु० ४, पृ० २६ ।
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