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________________ करणानुयोग-प्रवेशिका उठा है कि कृतकृत्य वेदकके कालके चार भाग करके उनमेंसे यदि प्रथम भागमें मरता है तो नियमसे देव ही होता है, दूसरे भागमें मरनेसे देव या मनुष्य होता है; तीसरे भागमें मरनेसे देव, मनुष्य या तिर्यञ्च होता है और चौथे भागमें मरनेसे चारोंमेंसे किसी भी गतिमें जन्म लेता है। ३७६. ३०-क्षायिक सम्यक्त्वकी कितनी स्थिति है ? उ०-अन्य सम्यक्त्वोंकी तरह क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होकर छूटता नहीं है। फिर भी क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके पश्चात् क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवके संसारमें रहनेकी अपेक्षासे क्षायिक सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त आठ वर्ष कम दो पूर्व कोटो और तैंतोस सागरसे कुछ अधिक है क्योंकि क्षायिक सम्यग्दष्टि जीव प्रथम तो उसी भवसे मुक्त हो जाता है जिस भवमें उसने दर्शनमोहका क्षय करके क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है। यदि क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करनेसे पहले उसने परभवको आयु बाँध ली हो तो वह तीसरे भवसे मुक्त हो जाता है और यदि उसने मनुष्य या तिर्यञ्चकी आयु बाँधो हो तो चौथे भवमें अवश्य मुक्त हो जाता है। ३७७. प्र०-क्षायिक सम्यक्त्व किन गुणस्थानोंमें रहता है ? उ०--चौथेसे चौदहवें गुणस्थान तक। ३७८.प्र०-औपशमिक सम्यक्त्व कितने गुणस्थानों में रहता है ? उ०--प्रथमोपशम सम्यक्त्व चौथेसे सातवें गुणस्थान तक और द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चौथेसे ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है। ३७९. प्र०-क्षायोपमिक सम्यक्त्व कितने गुणस्थानों में रहता है ? उ०--चौथेसे सातवें गुणस्थान तक । ३८०. प्र०—किस गतिमें कितने सम्यक्त्व होते हैं ? उ.--प्रथम नरकमें तीनों सम्यक्त्व पाये जाते हैं, किन्तु शेष छै नरकोंमें क्षायिक सम्यक्त्व नहीं पाया जाता। तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवोंमें तोनों सम्यक्त्व पाये जाते हैं। केवल इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें तथा देवियोंमें क्षायिक सम्यक्त्व नहीं पाया जाता। ३८१. प्र०-संज्ञो किसको कहते हैं ? । उ०--जो जीव मनकी सहायतासे शिक्षा वगैरहको ग्रहण कर सकता है उसे संज्ञी कहते हैं और जो ऐसा नहीं कर सकता उसे असंज्ञो कहते हैं। ३८२.प्र.-संज्ञीके कितने गुणस्थान होते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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