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________________ करणानुयोग - प्रवेशिका ५३ उठाकर कुछको प्रथम स्थिति ( नीचेकी स्थिति ) सम्बन्धी निषेकोंमें मिला देता है और कुछको द्वितोय स्थिति ( ऊपरको स्थिति ) सम्बन्धी निषेकों में मिला देता है। इस तरह वह तब तक करता रहता है जब तक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिके पूरे निषेक समाप्त न हो जायें । जब मध्यवर्ती समस्त निषेक ऊपरकी अथवा नीचे की स्थितिके निषेकोंमें दे दिये जाते हैं और प्रथम स्थिति तथा द्वितीय स्थिति बीचका अन्तरायाम मिथ्यात्व कर्मके निषेकोंसे सर्वथा शून्य हो जाता है तब अन्तरकरण पूर्ण हो जाता है । उ० ३६५. प्र० - वेदक अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व किसको कहते हैं ? ० - अनन्तानुबन्धी कषायका अप्रशस्त उपशम अथवा विसंयोजन होनेपर और मिथ्यात्व तथा सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृतिका प्रशस्त उपशम अथवा अप्रशस्त उपशम अथवा क्षयोन्मुख होनेपर तथा देशघाती सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेपर जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे वेदकसम्यक्त्व कहते हैं । इसीको क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी कहते हैं क्योंकि सर्वघाती अनन्तानुबन्धी कषाय मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्वका उदयाभाव रूपक्षय तथा सदवस्थारूप उपशम होनेपर और देशघाती सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेपर वेदक सम्यक्त्व होता है । इससे इसीका दुसरा नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है । ३६६. प्र० - अप्रशस्त उपशम या देशोपशम किसे कहते हैं ? उ०- जिसमें विवक्षित प्रकृति उदय आने योग्य तो न हो किन्तु उसका स्थिति अनुभाग घटाया बढ़ाया जा सके अथवा संक्रमण वगैरह किये जा सके, उसे अप्रशस्त उपशम या देशोपशम कहते हैं । ३६७. प्र० – प्रशस्त उपशम या सर्वोपशम किसको कहते हैं ? उ०- जिसमें विवक्षित प्रकृति न तो उदय आने योग्य हो हो और न उसका स्थिति अनुभाग घटाया जा सके तथा न संक्रमण वगैरह ही किया जा सके उसे प्रशस्त उपशम या सर्वोपशम कहते हैं । ३६८. प्र०—वेदक सम्यक्त्वकी स्थिति कितनी है ? उ०—वेदक सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति छियासठ सागर प्रमाण है । ३६९. प्र० - क्षायिक सम्यक्त्व किसको कहते हैं ? उ०- अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे जो निर्मल श्रद्धान होता है वह क्षायिक सम्यक्त्व है । ३७०. प्र० - क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका क्या क्रम है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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