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________________ करणानुयोग- प्रवेशिका ४७ उ० – दूसरे के मनमें स्थिर रूपी पदार्थको जो स्पष्ट जाने उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं । ३१६. प्र० - मन:पर्यय ज्ञानके कितने भेद हैं ? उ०- दो भेद हैं- एक ऋजुमति और दूसरा विपुलमति । ३१७. प्र० - ऋजुमति मन:पर्यय किसको कहते हैं ? उ०- दूसरे के मन में सरल रूपसे स्थित रूपी पदार्थको जो स्पष्ट जाने । ३१८. प्र० - विपुलमति मन:पर्यय किसको कहते हैं ? उ०- दूसरे के मनमें सरल अथवा जटिल रूपसे स्थित रूपी पदार्थको जो स्पष्ट जाने । ३१९. प्र० - ऋजुमति और विपुलमतिमें क्या अन्तर है ? उ०- ऋजुमति मन:पर्यय अपने और अन्य जीवोंके स्पर्शनादि इन्द्रिय और मन, वचन काययोगकी अपेक्षासे उत्पन्न होता है । किन्तु विपुलमति मनःपर्यय अवधिज्ञानकी तरह इनकी अपेक्षा के बिना ही उत्पन्न होता है तथा ऋजुमति विशुद्ध परिणामोंकी घटवारी होनेसे प्रतिपाती है । किन्तु विपुलमति अप्रतिपाती है, केवलज्ञान उत्पन्न होने तक बना रहता है। ३२०. प्र० - मन:पर्यय ज्ञान किसके होता है ? उ०- प्रमत्त आदि सात गुणस्थानों में ऋद्धिधारी और वर्धमान चरित्रवाले महामुनियोंके ही होता है । ३२१. प्र०—-सकल प्रत्यक्ष किसको कहते हैं ? - केवलज्ञान को । 411 ३२२. प्र० - केवलज्ञान किसको कहते हैं ? उ०- प्रतिपक्षी चार घातिया कर्मोंके नाश हो जानेसे, इन्द्रिय और मनकी सहायता के बिना सम्पूर्ण पदार्थों को जो एक साथ जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं । ३२३. प्र० - कुमतिज्ञान किसको कहते हैं ? उ०- मिथ्यात्वसहित इन्द्रियजन्य ज्ञानको कुमतिज्ञान कहते हैं । कुमतिज्ञानो बिना कहे स्वयं हो दूसरोंको कष्ट पहुँचाने वाले कार्यों में प्रवृत्ति करता है । ३२४. प्र० - कुश्रुतज्ञान किसको कहते हैं ? उ० - मिथ्यात्वसहित श्रुतज्ञानको कुश्रुतज्ञान कहते हैं । ३२५. प्र० -- कुअवधिज्ञान किसे कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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