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________________ करणानुयोग-प्रवेशिका . उ०-मिथ्यादृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन सात प्रकृतियोंके उपशम होनेसे चौथे आदि गुणस्थानोंमें जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं और सातवें गुणस्थानमें उपशमश्रेणी चढ़नेके सम्मुख अवस्थामें क्षायोपशमिक सम्यक्त्वसे जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। १०९. प्र०-मिश्रगुणस्थानका क्या स्वरूप है ? उ०- सम्यमिथ्यात्व मोहनीयके उदयसे न तो केवल मिथ्यात्वरूप परिणाम होते हैं और न केवल सम्यक्त्वरूप परिणाम होते हैं । किन्तु मिले हुए दही और गुड़को तरह एक जुदो हो जातिरूप सम्यमिथ्यात्व परिणाम होते हैं । इसीको मिश्रगुणस्थान कहते हैं । ११०. प्र.-मिश्रगुणस्थानकी विशेषता क्या है ? उ०-मिश्रगुणस्थानसे पांचवें आदि गुणस्थानोंमें चढ़ना शक्य नहीं है तथा मिश्र गुणस्थानमें अगले भवकी आयुका बन्ध नहीं होता और न मरण ही होता है। १११. प्र०-चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानका क्या स्वरूप है ? उ०-औपशमिक, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक सम्यक्त्वसे सहित होते हए जो जीव चारित्र मोहनीयका उदय होनेसे व्रतोंसे रहित होता है उसे अविरत सम्यग्दष्टि गुणस्थान वाला कहते हैं। सारांश यह है कि वह न तो इन्द्रियोंके विषयोंका त्यागी होता है और न त्रस और स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्यागी होता है, केवल जिनेन्द्र देवके द्वारा कहे हुए उपदेशपर अपनी आस्था रखता है । चौथे गुणस्थानसे लेकर आगेके सभी गुणस्थानोंमें नियमसे सम्यक्त्व होता है। ११२. प्र०-देशविरत अथवा विरताविरत नामक पाँचवें गुणस्थानका क्या स्वरूप है ? उ०-प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होनेसे यद्यपि सकलसंयम नहीं होता किन्तु एकदेशसंयम होता है। इसहीको देशविरत कहते हैं। इस देशविरत गुणस्थानवाला जीव त्रस हिंसासे तो विरत होता है और स्थावर जोवोंकी हिंसासे विरत नहीं होता। इसलिये इसे विरताविरत या संयतासंयत भो कहते हैं। . ११३. प्र.-प्रमत्तविरत नामक छठे गुणस्थानका क्या स्वरूप है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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