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करणानुयोग-प्रवेशिका १०३.प्र.--गुणस्थान किसको कहते हैं ?
उ०-दर्शन मोहनीय आदि कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशमसे होनेवाले जीवके भावोंको गुण कहते हैं। उन गुणोंकी तारतम्यरूप अवस्था विशेषको गुणस्थान कहते हैं।
१०४. प्र०-गुणस्थानके कितने भेद हैं ?
उ०-गुणस्थानके चौदह भेद हैं-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसापराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली ।
१०५. प्र०-गुणस्थानोंके ये नाम होनेका कारण क्या है ?
उ०-मोहनीय कर्म और योग । क्योंकि आदिके चार गुणस्थान तो दर्शन मोहनीय कर्मके निमित्तसे होते हैं, पाँचवेंसे लगाकर बारहवें गुणस्थान पर्यन्त आठ गुणस्थान चारित्रमोहनीयके निमित्तसे होते हैं और तेरहवाँ तथा चौदहवाँ गुणस्थान योगोंके निमित्तसे होता है ।
१०६. प्र०-मिथ्यात्व गुणस्थानका क्या स्वरूप है ?
उ-दर्शन मोहनीयके भेद मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे होनेवाले अतत्त्व श्रद्धानरूप जीवके भावको मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं । यह गुणस्थान दर्शनमोहनीयके उदयसे होता है, इसीसे इसमें औदयिक भाव कहा है। इस गुणस्थानवाला मिथ्यादृष्टि जीव यथार्थ वस्तुका श्रद्धान नहीं करता और जैसे पित्त-ज्वर वाले रोगीको मीठा दूध अच्छा नहीं लगता वैसे ही उसे धर्म भी अच्छा नहीं लगता।
१०७. प्र०-सासादन गुणस्थानका क्या स्वरूप है ?
उ.-प्रथमोपशम अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालमें कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छै आवलीकाल शेष रहनेपर, अनन्तानुबन्धी कषायके चार भेदोंमेंसे किसी एक कषायका उदय होनेसे जो जोव अपने सम्यक्त्वसे च्युत हो जाता है उसे सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं। अर्थात् सम्यक्त्वरूपी पर्वतकी चोटीसे गिरकर मिथ्यात्वरूपी भूमिकी ओर आनेवाला जीव सासादन सम्यग्दृष्टि है । इस गुणस्थानमें पारिणामिक भाव कहा है क्योंकि यह गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्मके उदय वगैरहकी अपेक्षासे नहीं होता किन्तु अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे होता है और अनन्तानुबन्धी कषाय चारित्रमोहनीयका भेद है। १०८. प्र०-प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें क्या
अन्तर है?
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