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________________ करणानुयोग-प्रवेशिका नामका छठा काल आता है, वह भी इक्कीस हजार वर्षका होता है। इस कालमें उनचास दिन शेष रहनेपर भरत क्षेत्रमें प्रलयकाल आ जाता है। प्रलयकाल उनचास दिनके बोतनेपर अवसपिणीकाल समाप्त हो जाता है और उत्सर्पिणीकाल प्रवेश करता है। इसके आरम्भमें ४६ दिनतक सुहावनी वर्षा होती है जिससे प्रलयकालमें जली हुई पृथ्वी शीतल हो जाती है और पहाड़ों को गुफाओंमें छिपे हुए स्त्री-पुरुष फिरसे इसपर बसना आरम्भ कर देते हैं। उत्सर्पिणीके प्रथम अतिदुषमा कालके बीत जानेपर दूसरा दुषमाकाल आरम्भ होता है। इस कालमें एक हजार वर्ष शेष रहनेपर भरत क्षेत्रमें चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं। जो मनुष्योंको अग्नि जलाना और उसपर भोजन पकानेकी शिक्षा देते हैं तथा विवाहकी प्रथा प्रचलित करते हैं। फिर तीसरा दुषमासूषमा काल प्रवेश करता है। इस कालमें पूनः त्रेसठ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं। तीसरे कालके बीतनेपर चौथा सुषमादुषमाकाल प्रवेश करता है उस समय यहाँ जघन्य भोगभूमि हो जाती है। इसके पश्चात् पाँचवाँ सुषमाकाल प्रविष्ट होता है उस समय मध्यम भोगभूमि होती है। फिर सुषमासुषमा नामक छठा काल प्रवेश करता है तब उत्तम भोगभूमि हो जाती है। उत्सर्पिणी कालके बीतनेपर पुनः अवसर्पिणी काल आरम्भ हो जाता है। इस प्रकार भरत और ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणीके पश्चात् उत्सपिणी और उत्सर्पिणीके पश्चात् अवसर्पिणीका क्रम चला करता है। असंख्यात उत्सपिणी अवसर्पिणी बीतनेपर एक हुण्डावसपिणीकाल आता है जिसमें कुछ विचित्र बातें होती हैं। ६८. प्र.- हुण्डावसर्पिणीके चिह्न क्या हैं ? उ०-हुण्डावसर्पिणो कालमें तीसरे सुषमादुषमा कालके रहते हुए ही कर्मभूमिका आरम्भ होने लगता है। उस कालमें प्रथम तीर्थङ्कर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं। कुछ जीव मोक्ष भो चले जाते हैं। चक्रवर्ती का मान भंग होता है, वह एक नये वर्ण ब्राह्मणकी रचना करता है। चौथे दुषमासुषमा कालमें ६३ मेंसे ५८ शलाका पुरुष हो जन्म लेते हैं। नौवेंसे सोलहवें तीर्थङ्कर तक सात तीर्थङ्करोंके तीर्थ में धर्मका विच्छेद हो जाता है । सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थङ्करपर उपसर्ग होता है। ग्यारह रुद्र और नौ नारद होते हैं । पाँचवें दुषमा कालमें चाण्डाल आदि जातियाँ तथा कल्की उपकल्को होते हैं ये अनेक नई बातें हुण्डावसर्पिणो काल में होती हैं। ६९. प्र-त्रेसठ शलाका पुरुष किन्हें कहते हैं ? ६८. त्रि० प्र०, अधि० ४, गा० १६१६-१६२३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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