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________________ करणानुयोग-प्रवेशिका ४३. प्र०-जगच्छेणी किसे कहते हैं ? उ०—पल्यके अर्द्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण घनांगुलको रखकर उन्हें परस्परमें गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसे जगच्छ्रेणी कहते हैं। सो सात राजु लम्बी आकाशके प्रदेशोंकी पंक्ति प्रमाण जाननी चाहिये। ४४. प्र.-जगत्प्रतर या प्रतरलोक किसे कहते हैं ? उ०-जगच्छेणीके वर्गको अर्थात् जगत्श्रेणीको जगत्श्रेणोसे गुणा करने पर जो प्रमाण हो उसे जगत्प्रतर या प्रतरलोक कहते हैं। सो जगच्छणी प्रमाण लम्बे और चौड़े क्षेत्र में जितने प्रदेश आयें उतना जानना चाहिये। ४५. प्र०-घनलोक किसे कहते हैं ? उ०-जगत्श्रेणीके घनको लोक अथवा घनलोक कहते हैं। सो जगत्श्रेणी प्रमाण लम्बे, चौड़े और ऊँचे क्षेत्रमें जितने प्रदेश आयें उतना जानना चाहिये। ४६. प्र०-राज किसे कहते हैं ? उ०-जगत्श्रेणीके सातवें भागको राजू कहते हैं । ४७. प्र०-लोक किसे कहते हैं ? उ.-जितने आकाशमें धर्म, अधर्म आदि छै द्रव्य पाये जाते हैं तथा जीव और पुद्गलोंका गमनागमन होता है उतने आकाशको लोक अथवा लोकाकाश कहते हैं। ४८. प्र०-लोक कहाँपर स्थित हैं ? उ०-समस्त आकाशके मध्य भागमें लोक स्थित है। उसके बाहर सब ओर अनन्त आकाश है जिसे अलोकाकाश कहते हैं। ४९. प्र०-इस लोकको किसने कब रचा है ? उ०-यह लोक अकृत्रिम है, किसीका बनाया हुआ नहीं है, इसका न आदि है और न अन्त है, यह सदासे है और सदा रहेगा। ५०. प्र०-लोकका आकार कैसा है ? उ.-अपने दोनों पैरोंको फैलाकर तथा दोनों हाथ कटि प्रदेशके दोनों ओर रखकर खड़े हुए पुरुषका जैसा आकार होता है वैसा ही लोकका आकार है । अथवा आधे मृदंगको खड़ा करके उसके ऊपर पूरे मृदंगको खड़ा रखनेसे जैसा आकार होता है वैसा ही लोकका आकार है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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