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________________ करणानुयोग-प्रवेशिका १०७ दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशःकोति ये चौंतोस प्रकृतियां सान्तर रूपसे बँधती हैं। ७१८. प्र०-सान्तरबन्धी प्रकृति किसे कहते हैं ? उ.-बन्धकाल बीतनेसे जिस-जिस प्रकृतिकी बन्ध व्युच्छित्ति सम्भव है वह सान्तरबन्धी प्रकृति है। उक्त चौंतीस प्रकृतियोंका निरन्तर बन्धकाल एक समय है । अतः ये सान्तरबन्धो हैं। ७१९. प्र०-सान्तर निरन्तरबन्धी प्रकृतियाँ कौनसी हैं ? उ०-५४ निरन्तरबन्धी और ३४ सान्तरबन्धी प्रकृतियोंके बिना शेष बत्तीस प्रकृतियाँ सान्तर रूपसे भी बँधती हैं और निरन्तर रूपसे भी बँधतो हैं। जबतक इनकी प्रतिपक्षी प्रकृति रहती है तब तक ये सान्तरबन्धी हैं और प्रतिपक्षीके अभावमें निरन्तरबन्धी हैं। जैसे-जहां अन्य गतिका भो बन्ध पाया जाता है वहां देवगति सप्रतिपक्षी होनेसे सान्तरबन्धी है और जहाँ केवल देवगतिका हो बन्ध सम्भव है वहाँ निष्प्रतिपक्ष होनेसे देवगति निरन्तरबन्धी ७२०. प्र०-सादिबन्ध किसको कहते हैं ? उ०—जिस कर्मके बन्धका अभाव होकर पुनः बन्ध होता है उसके बन्धको सादिबन्ध कहते हैं। जैसे-उपशम श्रेणिमें बन्धका अभाव करके पुनः नीचे उतरकर बन्धका प्रारम्भ करनेवाले जीवोंके सादिबन्ध होता है। ७२१. प्र०-अनादिबन्ध किसको कहते हैं ? उ०—जिस बन्धके आदिका अभाव होता है उसे अनादिबन्ध कहते हैं। जैसे-उपशमश्रेणिपर नहीं चढ़े हुए मिथ्यादृष्टि जीवोंके अनादि बन्ध होता है। ७२२. प्र०-ध्रवबन्ध किसको कहते हैं ? उ०-अभव्य जोवोंके बन्धको ध्रुवबन्ध कहते हैं, क्योंकि अभव्यके निरन्तर बँधनेवाली ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धका कभी भो अभाव नहीं होता। ७२३. प्र०-अध्रुवबन्ध किसको कहते हैं ? उ०-भव्य जीवोंके बन्धको अध्रुव बन्ध कहते हैं । क्योंकि उनके बन्धका अभाव भी पाया जाता है। ७२०-७२३. गो० कर्म०, गा० १२३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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