SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका उ०-सासादन गुणस्थानके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, एकेन्द्रिय आदि चार जाति और स्थावर इन नौ प्रकृतियोंको उदय व्युच्छित्ति होती है। ६६३. प्र०-मिश्र गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका उदय होता है ? __उ०-दूसरे गुणस्थानमें १११ प्रकृतियोंका उदय होता है। उनमेंसे व्युच्छिन्न नौ प्रकृतियोंको घटानेपर शेष १०२ मेंसे नरकगत्यानुपूर्वीके सिवाय (क्योंकि वह दूसरे गुणस्थानमें घटाई जा चुकी है ) शेष तोन आनुपूर्वी घटानेपर शेष रहीं ६६ प्रकृतियोंमें एक सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय यहां होनेसे तीसरे गुणस्थानमें उदययोग्य प्रकृतियां १०० हैं। ६६४. प्र०- मिश्रगुणस्थानमें आनुपूर्वीका उदय क्यों नहीं होता? उ०-तीसरे गुणस्थानमें मरण न होनेसे किसी भी आनुपूर्वीका उदय नहीं होता। ६६५. प्र०-तीसरे गुणस्थानमें उदय व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती है ? उ.-एक सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृतिकी उदय व्युच्छित्ति तीसरे गुणस्थानमें होतो है। ६६६. प्र०-चौथे गुणस्थानमें उदय कितनी प्रकृतियोंका होता है ? उ०-तोसरे गणस्थानमें १०० प्रकृतियोंका उदय होता है। उनमें से व्युच्छिन्न प्रकृति सम्यक् मिथ्यात्वको घटानेपर ६६ शेष रहती हैं। इनमें चारों आनुपूर्वी और सम्यक्त्व प्रकृतिको मिलानेसे १०४ प्रकृतियोंका उदय चौथे गुणस्थानमें होता है। __६६७. प्र०-चौथे गुणस्थानमें उदय व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती १. उ०-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, नरकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, चारों आनुपूर्वी, दुभंग, अनादेय, अयशस्कीति, इन सत्रह प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति चौथे अविरत सम्यग्दृष्टी गुणस्थानमें होती है। ६६८. प्र०-पाँचवें गुणस्थानमें उदय कितनी प्रकृतियोंका होता है ? उ०-चौथे गुणस्थानमें जो १०४ प्रकृतियोंका उदय कहा है, उनमेंसे म्युच्छिन्न हुईं १७ प्रकृतियोंको घटानेपर शेष ८७ प्रकृतियोंका उदय होता है। ६६९. प्र०-पाँचवें गुणस्थानमें उदय व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy