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करणानुयोग-प्रवेशिका
५५२. प्र०-आबाधाकालका क्या नियम है ?
उ०-उदयकी अपेक्षा आयुकर्मके सिवाय शेष सात कर्मोकी आबाधा एक कोडाकोड़ी सागरको स्थितिमें सौ वर्ष प्रमाण होती है। अतः जिस कर्मकी स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण बँधती है, उसका आबाधाकाल सात हजार वर्ष है। जिस कर्मकी स्थिति चालोस कोडाकोड़ी सागर है उसकी आबाधा चार हजार वर्ष है। जिसकी स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागर है उसका आवाधाकाल तीन हजार वर्ष है। इसी तरह सब कर्मोंकी स्थिति में आबाधाकाल जानना । जिस कर्मको स्थिति अन्तः कोड़ाकोड़ो सागर है उसका आबाधाकाल अन्तर्मुहर्त है।
५५३. प्र०-आयु कर्मको आबाधाका क्या नियम है ?
उ०-आयु कर्मकी आबाधा अन्य कर्मोकी तरह स्थितिबन्धके अनुसार नहीं होती। इसीसे आयुके स्थितिबन्धमें आबाधाकाल नहीं गिना जाता क्योंकि आयुका आबाधाकाल पूर्व पर्यायमें ही बीत जाता है। अतः आयु कर्मके प्रथम निषेककी स्थिति एक समय, दूसरे निषेकको दो समय, इस तरह क्रमसे बढ़ते-बढ़ते अन्तिम निषेककी स्थिति सम्पूर्ण स्थितिबन्ध प्रमाण होती है।
५५४. प्र-आयु कर्मका आबाधाकाल कितना है ?
उ०-आयु कर्मका बन्ध अन्य कर्मों की तरह सदा नहीं होता। देव और नारकियोंके छै महीने आयु शेष रहने पर और भोगभूमिया जीवोंके नौ महीना आयु शेष रहने पर उसके त्रिभागमें आयु कर्मका बन्ध होता है। कर्मभूमिया मनुष्य तिर्यञ्चोंके अपनी सम्पूर्ण आयुके त्रिभागमें आयु कर्मका बन्ध होता है। सो कर्मभूमिया जीवको उत्कृष्ट आयु एक कोटी पूर्व होतो है । अतः एक कोटी पूर्वका त्रिभाग आयु कर्मका उत्कृष्ट आबाधाकाल है। विभागके द्वारा आठ अपकर्ष कालोंमें आयुकर्मका बन्ध होता है। किन्तु यदि किसी भी अपकर्ष कालमें आयु नहीं बँधतो तो किन्हीं आचार्यके मतसे एक आवलीके असंख्यातवें भाग और किन्हीं आचार्यके मतसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयुके अवशेष रहने पर उत्तर भवको आयुका बन्ध होता है। अतः आयुकर्मका जघन्य आवाधाकाल अन्तर्मुहूर्त अथवा आवलोका असंख्यातवाँ भाग होता है।
५५५. प्र०—अपकर्षकाल किसे कहत हैं ?
उ०-वतमान आयुको अपकृष्य अर्थात् घटा-घटाकर आगामी परभवको आयु जिस कालमें बंधे उसे अपकर्ष काल कहते हैं । जैसे-किसो कर्मभूभिया मनुष्यकी आयु इक्यासो वर्ष है । उस आयुके दो भाग बोतने पर जब सत्ताईस
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