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करणानुयोग-प्रवेशिका कर्मको प्रमाण निर्माण कर्म कहते हैं और कान, आँख, नाक आदि अंगोंका अपने-अपने स्थानपर नियामक जो कर्म हो उसको स्थान निर्माण नामकर्म कहते हैं।
५२८.प्र०-तीर्थङ्कर नामकर्म किसको कहते हैं ? उ०-जिस कर्मके उदयसे जोव त्रिलोकमें पूज्य होता है। ५२९. प्र०-गोत्र कर्मके कितने भेद हैं ? उ०-दो-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । ५३०. प्र० -अन्तरायकर्मके कितने भेद हैं ?
उ०-पाँच भेद हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । जिस कर्मके उदयसे दानमें, लाभमें, भोगमें, उपभोगमें और वोर्य में विघ्न होता है उसे क्रमशः दानान्तराय; लाभान्तराय आदि कहते हैं।
५३१. प्र०-कर्मोकी कितनी अवस्थाएं होती है ?
उ०-कर्मों को दस अवस्थाएँ होती हैं-बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, उदयावली, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, निधत्ति और निकाचना। इन्हींको दस करण कहते हैं।
५३२. प्र०-बन्ध किसको कहते हैं ? उ०-नवीन कर्म पुद्गलोंके आत्माके साथ बंधनेको बन्ध कहते हैं । ५३३.३०-बन्धके कितने भेद हैं ?
उ०-बन्धके चार भेद हैं-प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध ।
५३४. प्र०-प्रकृतिबन्ध किसको कहते हैं ?
उ०-कर्म रूप होने योग्य पुद्गलोंका ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृति रूप और उनके भेद उत्तर प्रकृति रूप परिणमन होनेका नाम प्रकृतिबन्ध है।
५३५. प्र०-प्रकृतिबन्धके कितने भेद हैं ?
उ०-प्रकृतिबन्धके दो भेद हैं-मूल प्रकृतिबन्ध और उत्तर प्रकृतिबन्ध, मूल प्रकृतिबन्धके ज्ञानावरण आदि आठ भेद हैं और उनके जितने प्रभेद हैं उतने हो उत्तर प्रकृतिबन्धके भेद हैं।
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