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राजा श्रीपाल ]
दूसरे दिन सवेरा हुआ । इस समय जंगल भी पूरा पार होने आया था । यहाँ पहुँचकर श्रीपाल ने कहा मां ! भूख लगी है, अतः दूधः शक्कर, और चावल मुझे दो।" कमलप्रभा विलख बिलख कर रोती हुई बोली, बेटा ! दूध, शक्कर और चावल के, हमारे बीच में हजारों कोस की दूरी पड़ गई है, अब तो जुआर-बाजरा की राबड़ी ही मिल जाय तो भी परमात्मा की दया समझनी चाहिए।"
श्रीपालकुमार भूखा है, रानी के पास खाने को कुछ भी नहीं हैं, ऐसी ही दशा में वे कोढ़ियों के झुन्ड के पास पहुँचीं।
सात सौ कोड़ियों का एक झुन्ड, जिनके शरीरों पर भयंकर कोढ़ था और हाथों पैरों की अंगुलियाँ गल गई थीं, उनके पास पहुँचकर रानी ने उनसे कहा कि-"भाइयो ! विपत्ति के मारे हम आपके पास आये हैं अतः तुम हमें सहारा दो।" यों कहकर रानी ने सब बात कह सुनाई । कोढ़ियों ने उत्तर बिया, कि माता जी ! हमें सहायता देने में कुछ भी आपत्ति नहीं हैं, किन्तु जो कोई भी हमारे साथ रहेगा, उसे भयंकर कोढ़ हो जावेगा, रानी ने फिर कहा कि-"जो कुछ होना होगा, वह होगा, किन्तु अभी तो हमें अपने प्राण बचाने दो।"
कोढ़ियों ने अपने झुन्ड में उन्हें मिला लिया और रानी को एक सफेद चादर ओढ़ा दी । उसी समय राजा अजीतसेन के सिपाही हूंढते-ढूढ़ते वहां पहुंचे और उन्होंने कोढ़ियों से पूछा-"तुम लोगों ने किसी स्त्री और एक कुमार को इधर से भागते हुए देखा है क्या ? कोढ़ियों ने उत्तर दिया कि-"हमें इस विषय में कुछ भी मालूम नहीं है और न हमने किसी को इधर से जाते देखा ही है।" सिपाही लोग बले गये और रानी तथा कुमार बच गये।
कोढ़ियों ने भूखे कुवर को खाने को दिया । कुवर की भूख
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