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हो पाता तो वे इधर उधर से कुछ कहानियों की पुस्तकें प्राप्त कर अपनी जिज्ञासा की आंशिक पूर्ति करने का प्रयत्न करते हैं। यद्यपि सुनने में जो मजा आता है वह पढ़ने में नहीं आता क्योंकि श्रोता पर कहने वाले की शैली और मुखमुद्रा आदि का प्रभाव विशेष रूप से पड़ता है। यदि वही कथा नाटक का रूप लेने तो दृश्य और श्रव्य दोनों के सम्मिश्रण से और भी अधिक आनन्द प्राप्त होता है। क्योंकि उसमें अपने सामने जो दृश्य उपस्थित होते हैं, उनकी भाव. भंगिमा का गहरा प्रभाव पड़ता है और कई बार तो वह भावी जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करता है।
कथा 'स्व' की भी होती है और 'पर' की भी। अपने जीवन के प्रसङ्ग भो कथा का रूप धारण कर लेते हैं। हमारा सारा जीवन हो 'बात' या 'कथा' हैं, उसी के आधार से भावी कथानक बनते हैं। अपनो कथा को आत्म-कथा या संस्मरण कहा जाता है। इसी तरह दूसरे प्राणियों को कुछ बातें भी कथा का रूप धारण कर लेती हैं। इसीलिये लोक कथाओं में प्रायः ऐसा कहते व सुनते हैं कि चकवा चकवी से उसके बच्चे कोई कहानो कहने का अनुरोध करते हैं तो वे उनसे पूछते हैं कि कैसी कहानी सुनाऊ ?'घर-बीती' या पर बीती' । तब बच्चे उत्तर देते हैं कि घर बीती तो रोज ही सुनते हैं आज तो पर बीती कोई रोचक कथा सुनाइये । अर्थात् मानव-मान की दूसरे के जीवन प्रसंगों को सुनने-जानने में सहज ही रुचि एवं अधिक आश्चर्य होता है । इसी निमित्त से लाखों कहानियाँ जिनमें कुछ पौराणिक हैं, कुछ काल्पनिक, कुछ ऐतिहासिक और बहुत से लोक कथायें होती हैं, अब तक कही व लिखी जाती रही हैं।
जैन तीर्थंकरों और आचार्यों ने जिस तरह लोक-भाषा के अपने उपदेशों का माध्यम बनाया, जिससे जन-जन उनकी कही हु बात को सहज ही समझ सकें, उसी तरह अपनी बात को प्रभावशाल या असरकारी, हृदय-स्पर्शी और मार्मिक बनाने के लिये उन्होंने लो
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