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[ जैन कथा संग्रह
किसान सोचने लगा, इनके गुरु तो न जाने कैसे होंगे । यही सोचते-सोचते वह गौतम स्वामी के साथ चलता रहा । प्रभु महावीर एक विशाल सभा में बैठे थे । सब पर उनका अद्भुत प्रभाव पड़ता था । उस किसान ने उन्हें दूर से ही देखा । न जाने क्यों, उसके मुख पर खेद प्रगट होने लगा और उसने उधर से पीठ फेरली ।
गौतमस्वामी उसे सभा में ले गये और कहा- महानुभाव, इन्हें वंदन करो, ये जगत के उद्धारक हैं । किसान ने कहा- यदि यही तुम्हारे गुरु हैं, यही जगत के उद्धारक हैं, तो मैं तो इनके पास एक घड़ी भी नहीं ठहर सकता । इतना कह कर वह वहाँ से एकदम भाग निकला । समस्त सभा आश्चर्य चकित हो गई। गौतमस्वामी को भी ऐसे आदमी को शिष्य बनाने के कारण कुछ शरम सीं आगई । पूछने लगे, प्रभो ! इसे केवल आपके प्रति ही इतना द्वेष क्यों है ? अन्य किसी से तो वैर नहीं है । प्रभु ने उत्तर दिया- गौतम ! पूर्वभव में एकबार जब मैं त्रिपृष्ट नामक बलवान राजा था । तब यह किसान का जीव सिंह था और इसने शहर में हाहाकार मचा रखा था । तब मैंने इसको पकड़ कर मार डाला था । उस समय तुम मेरे सारथी थे । जब अन्त समय में यह दुःख से पीड़ित होकर गर्जना कर रहा था और तड़फड़ा रहा था, तब तुमने मधुर वचनों से इसे शान्ति प्रदान की थी, यही कारण है कि मैं इस भत्र में तीर्थंकर हूँ, तथापि इसे मेरे प्रति द्वेष है और तुम्हारे प्रति प्रेम । यह बात सुनकर सबने बैर-विरोध छोड़कर प्रेममय जीवन विताने का बोध
प्राप्त किया ।
(५)
एकबार गौतम स्वामी ने अनेकों तापसों आदि को उपदेश दिया, उन्हें थोड़े ही समय में श्रेष्ठ आत्मज्ञान प्राप्त हुआ, यह देखकर गौतम
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