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दानवीर जगडूशाह ]
[ १३६ होने लगो कि-"क्या कभी ऐसा भी समय आ सकता है, जब मेरे दरवाजे से किसी याचक को खाली हाथ जाना पड़े ? हे नाथ ! ऐसा समय मत लाना।"
___ जगडू इसी प्रकार की चिन्ता किया करता था, कि एक दिन उसके भाग्य ने जोर मारा। शहर के दरवाजे पर उसने बकरियों का एक झुण्ड देंखा । इस झुण्ड में एक बकरी के गले में मणि बँधी हुई थी, मणि बड़ी मूल्यवान थी। किन्तु उस चरवाहे (ग्वालिये). को इस बात क्या पता ? उसने तो काँच समझ कर ही बकरी के गले में बांध रखी थी।
जगडू ने विचार किया कि-"यदि यह मरिण मुझे मिल जाय, तो संसार में मैं अपने सारे इच्छित कार्य कर सकूगा । अतः मैं इस बकरी को ही खरीद लेता हूँ, जिससे उसे संदेह ही न हो और मुझे मणि भी मिल जाय ।" यों सोचकर उसने थोड़े ही दामों में वह बकरी खरीद ली । इसके बाद उसे धन की कोई कमी नहीं रही।
उसने देश-विदेश में व्यौपार करना शुरू किया । पृथ्वी पर तो उसका व्यौपार खूब फैल ही गया था, किन्तु समुद्र पर ह ने वाले व्यापार में भी उस समय वह सबसे आगे हो गया दूर-दूर के देशों में जगडू के जहाज जाते और वहां पर माल का लेन देन करके वापस आते थे।
( २ ) एकबार जगडूशाह का जयतसिंह नामक एक मुनीम ईरान देश के होमर्ज नाम के बन्दरगाह पर गया। वहां उसने समुद्र के किनारे पर एक बड़ी बखारी किराये पर ली। उसके पास ही की बखारी माल गोदाम व गद्दी खंभात के एक मुसलमान व्यापारी ने ली। .. कुछ दिनों के बाद इन दोनों बखारियों के बीच से एक सुन्दर
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