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[ जैन कथा संग्रह भोजनालय की व्यवस्था की, और जाड़े के दिनों में प्रत्येक कार्यकर्ता के पास एक सिगड़ी (अँगीठी) रखवाने का इन्तजाम किया। लगभग बारह करोड़ रुपये के खर्च से यह मन्दिर तैयार हुए। जिसकी जोड़ी आज भी संसार में कहीं नहीं हैं। विमलशाह के मन्दिर के पास ही यह मन्दिर भी बना हुआ है। करोड़ों की लागत वाले नेमिनाथ का यह कलाधाम लूणिग के नाम से प्रसिद्ध है।
इसके पश्चात् उन्होंने और भी बहुत से मन्दिर तथा उपा. श्रय बनवाये एवं अनेकों पुस्तकों के ज्ञान भंडार स्थापित किये। बारह बार शत्रुञ्जय और गिरनार के संघ निकाले । ये संघ इतने बड़े-बड़े थे, कि हम लोगों के चित्त में तो कभी उतने बड़े संघों का खयाल भी नहीं आ सकता। एक बार के संघ में तो सात लाख मनुष्य थे।
इन दोनों भाइयों की उदारता केवल जैनियों अथवा केवल गुजरातियों के लिये ही सीमित नहीं थी। उन्होंने प्रत्येक धर्म वालों के साथ सारे भारत में उदारता व दानशीलता का व्यवहार किया। केदारनाथ से कन्याकुमारी तक ऐसा एक भी छोटा बड़ा तीर्थस्थान नहीं है, जहाँ इन लोगों की उदारता का परिचय न मिला हो। सोमनाथ पाटण को ये दस लाख और काशी, द्वारिका आदि स्थानों को प्रतिवर्ष एक-एक लाख रुपया सहायता-स्वरूप भेजते थे। यही नहीं उन्होंने बहत से शिवालय तथा मस्जिदें भी बनवाई थीं। तालाब, कुए और बाबड़िये उन्होंने बनवाई थीं, इसकी तो कोई गिनती ही नहीं है।
इन दोनों भाइयों के सूझ-बूझ एवं चतुरतापूर्ण कार्यों से प्रजा बडी सुखी थी। राज्य में बन्दोबस्त भी बहुत अच्छा था। सब धर्मों के लोग अपना-अपना धर्म अच्छी तरह पालन कर सकते थे। देश
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