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( १०६ ) अनादि के कर्म-प्रभाव से यह सिंह के तुल्य आत्मा एक बकरी की नाइ दुर्बल बन गया है। श्रीजिनेन्द्र भगवान भी पहिले तो अपनी ही तरह सकर्मज थे, परन्तु उन्होंने अपनी आत्मा के निजरूप को पहिचान कर सिंह की तरह शक्तिका विकाश कर अनादिकाल के लगे हुए कर्मोंको एक क्षण भर में नष्ट कर सम्पूर्ण
आत्मस्वरूप को विकशित कर परमात्म-पदको प्राप्त किया है। हम लोग अभी तक प्रात्माकी
क्ति का विकाश महीं कर सके हैं, एवं आत्मशक्तिके विकाश करनेमें जितने प्रयोग परिश्रम की आवश्यकता है, उतना परिश्रम भी नहीं करते हैं। यही कारण है कि हम लोग अभी तक इतने निर्बल हैं। शंका-"जड़प कर्मोंने सिंह तुल्य आत्मा के स्वरूप को नष्टप्रायः कर दिया है, तो आत्मा से तो कर्म ही बलवान है,
और यदि कर्म ही बलवान है तो बलवान कर्मों को आत्मा की शक्ति कैसे हटा सकती है ?
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