SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राग्वाट-इतिहास के लेखन के समाप्ति-काल पर मैं श्री नाहटाजी से बीकानेर में मिला था। इनके सौजन्यपूर्ण व्यवहार की देखकर मुझ को इस बात पर पश्चात्ताप हुअा कि ऐसे सरल हृदयी विद्वान से मुझको बहुत पूर्व ही मिलना चाहिए था। खैर ! श्री नाहटाजी ने उक्त इतिहास के लिये एक लम्बी भूमिका लिखी । मैं इनके कुछ निकट आया। तत्पश्चात् मेरी २-४ छोटी कृतियां निकलीं । 'जब श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक प्रथ' जैसे बहद कार्य का भार मेरे पर आ पड़ा, उस समय पंडित सुखलालजी, पं० लालचन्द भगवानदास गांधी और आपने पूरा २ सहयोग देने का वचन दिया । आपने तो वचन ही नहीं दिया, परन्तु उक्त बृहद् ग्रंथ को उन्नत से उन्नत स्थिति में निकालने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाली। आपके सम्पादकत्व से वह नथ अपनी भांति के गथों में नाम कमा गया। यह लिखने का प्राशय मात्र यही है कि विद्वान् वही है जो अपनी विद्वत्ता से दूसरों को उठाता है। यह गुण नाहटाजी में घर जमा कर बैठा है । इसमें तनिक सन्देह नहीं । ऐसे कई विद्वान् देखें हैं जो छोटों से बात करने तक में शर्माते हैं, अपना समय का अपव्यय करना समझते हैं और छोटा अगर कुछ लिखकर उनको दे दे तो कुछ चांदी के टुकड़े देकर उस पर अपना नाम चढ़ाते नही शर्माते हैं । यहां दोनों ही गिरते हैं। यह अवगुण जिसमें नहीं, वह ही सच्चा सरस्वती का पुजारी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003825
Book TitlePallival Jain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherNandlal Jain Pallival Bharatpur
Publication Year1963
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy