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सं० १४४२ भाद्र० शु० २. सोम के दिन स्तंभ-तीर्थ (संभात) में लिखित पंचाशक-वृत्ति ग्रंथ-ताडपत्रीय पुस्तक के अन्त में है। उसके प्रारम्भ में ..."(प्राभू श्रेष्ठी) नाम है, अन्त से सूचित होता है कि सोमतिलक सूरीश्वर के पट्टन के ज्ञान भंडार की यह पुस्तिका थी । __उसके १८ वें श्लोक से ज्ञात होता है कि उस वंश के दानी श्रीमान् रत्नसिंह ने संधपति' होकर संघ को विमलाचल आदि तीर्थों की यात्रा कराई थी। और [ श्लोक २०-२१] सद्गुणी राज-मान्य सिंह ने वि० सं० १४२० में तपागच्छीय श्री जयानन्दसूरि और देव सुन्दरसूरिका सूरिपद-महोत्सव किया था। __सर्व कुटुम्बाधिपति इस सिंह के आदेश से तमालिनी ( खंभात ) में; धनाक और सहदेव ने संवत् १४४१ में स्तम्भनकाधिप ( स्तम्भनपार्श्वनाथ ) के चैत्य में ज्ञान सागरसूरि (तपागच्छीय ) का सूरिपदमहोत्सव किया था ।
तथा सौरिगक श्रेष्ठ अन्य गृहस्थों ने वि० सं० १४४२ में कुल मंडन सूरि से गुणरत्नसूरि (तपागच्छीय) का सूरिपद-महोत्सव किया था। . __इस प्रशस्ति में सौरिणक-श्रेष्ठ साल्हा-कुटुम्ब के गुण-वर्णन के साथ उसके स्वजनों के भी नाम दर्शाये हैं। इस साल्हा की सुशील, विशुद्ध बुद्धिशाली भार्या हीरादेवी जो सौवर्णिक-शिरोमरिण लूढा और लाखणदेवी की सुपुत्री थी, उसने शत्रुजय वगैरह तीर्थों की यात्रा से पुण्योपार्जन किया था।
स्वर्गीय लोढाजी ने इस इतिहास के पृ० ७७ से ८१ तक इस कुल का परिचय, वशवृक्ष के साथ कराया है लेकिन इसका आधार-स्थान जै० पू० प्र० सं० प्र० ४०, प० ४२, और प्र० सं० प्र० १०२ प० ६४ दर्शाया हैं । मालूम होता हैं वे, पट्टन भं० ग्रन्थ सूची न देख सके प्रस्तु
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