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________________ पल्लीवास (ल) ब्राह्मणों ने पत्तनपुर में महाराज जयसिंह को सूचित की थी । ऐसा उल्लेख--वि० सं० १३३४ के प्रभाचन्द्रसूरि के सं० प्रभावक चरित्र [वीरा चार्य चरित्र श्लो० १६-१६] में मिलता है। सिद्धराज और कुमारपाल के महामात्य प्राग्वाटवंशीय आनन्द पुत्र पृथ्वीपाल ने वि० सं० १२०१ ज्येष्ठ वदी ६ रविवार को अपने श्रेय के . लिए कराई श्री विमलनाथ और श्री अनन्तनाथ देव जिन युगल मूर्तियाँ पल्लिका (पाली) के महावीर चैत्य में अर्पण की थीं। उसका लेख श्री नाहर जैन लेख संग्रह (भा० १, ले० ८१४, ८१५) तथा श्री जिन विजयजी प्रा. जैन लेखसंग्रह भा० २ ले० ३८१) में दर्शाया है । श्रीगुजरातनो प्राचीन मंत्रि वंश नामक मेरा लेख अोरियन्टल कॉन्फरेन्स ७ वा अधिवेशन निबन्ध संग्रह में सन् १९३५ बड़ौदा से प्रकाशित हुआ, उसमें सूचित किया हैं । जैसलमेर किले के ग्रन्थ भंडार में रही हुई पंचाशक वृत्ति के ताड पत्रीय पुस्तक के अन्त में सं० दो पद्यों में उल्लेख है कि 'विक्रम संवत १२०७ में पतली-भंग के समय उस त्रुटित पुस्तक को ग्रहण किया था, पीछे श्री जिनदत्तसूरिजी के शिष्य स्थिर चन्द्र गरिण ने अपने कर्मक्षयार्थ अजय मेरु दुर्ग में उसके गत भाग को लिखा था। __ सुप्रसिद्ध प्राचार्य श्री हेमचन्द्रजी ने गुर्जरेश्वर महाराजा कुमार पाल की कीति पल्ली-देश ( पाली प्रदेश ) में भ्रमण करती सूचित की है। उनकी देशी नाम माला (वर्ग ६, गा० १३५ वृत्ति में इस भाव का ११८ वाँ पद्य हैं। "अमुरिअ तेअ-मुलासिय !, जयसिरि—वीवाह ! मुक्कया तुज्झ मुरइ व्व भमइ किती, मुत्राइणी किं ण पल्लि देसे वि?" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003825
Book TitlePallival Jain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherNandlal Jain Pallival Bharatpur
Publication Year1963
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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