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________________ उत्तेजन देने वाली हो, एक व्यक्ति आस्तिक हो, देव, गुरूग्रादि को मानने वाली हो. और दूसरी नास्तिक, देव, गुरू, मन्दिर, पूजन आदि से नफरत करने वाली हो, एक व्यक्ति मूर्ति का मान-सन्मान पूजन करने वाली हो, और दूसरी मूर्ति का द्वष-तिरस्कार करने वाली हो । उन दोनों का मेल किस तरह बैठ सकता है ? विलक्षण चक्रों से संसार रथ गृहस्थाश्रम यथा योग्य कैसे चल सके ? यह सब विचार दीर्घ दृष्टि से लक्ष्य में रखकर पूर्वाचार्यों ने समाज-हित, समाज-संगठन के लिए फरमाया कि-'कुल-शील समैः सार्ध कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः ।' अर्थात् जिनका कुल और शील ( सदाचरण ) समान हो, और जो भिन्न गोत्र में उत्पन्न हुए हों ( अर्थात् पीढ़ी-सम्बन्ध से बहिन, भाई न होते हों) उनके साथ विवाह करने वाला सद्-गृहस्थ गृहस्थ-धर्म पालने के लिए योग्य होता है-धर्म को निर्विघ्न पाल सकता है। ऐसे दम्पतीयुगल सुख-शांतिमय उन्नत जीवन पसार करते हैं, दूसरों के लिए आदर्श बन सकते हैं, सद्गुरणी संस्कारी, धर्म परायण सन्तति-प्रजा परिवार को प्रकट करते हैं; जो समाज के, देशके, धर्मके, अभ्युदयके लिए, अभ्युत्थान के लिए समर्थ हो सके । विशुद्ध ज्ञाति-परम्परा से देश को विशुद्धता का कल्याण लाभ है । सारे जगत का या देश का उद्धार का ठेका कोई नहीं ले सकता । जैसे पंचों द्वारा प्रत्येक ग्राम की रक्षा व्यवस्था की जाती है, इस तरह भिन्न भिन्न जाति पंच मंडल, अपने अपने समु दाय की रक्षा व्यवस्था उन्नति प्रगति कर सकता है, जो परस्पर सुख दुःख में सम सुख दुखः भागी बनता है। इस दृष्टि से विचारा जाय तो यह इतिहास उपयोगी प्रतीत होगा। पल्लीवाल जैन समाज जागृत और उत्साही मालूम होता है। श्रीयुत नन्दनलालजी जैसे ज्ञाति-नन्दन श्रीमान् सज्जन उसमें है कि अपने जाति समाज के प्राचीन अर्वाचीन इतिहास लिखने के लिए लेखक को प्रोत्साहित कर सके। इतिहास प्रेमी श्रीमान् धीमान् अगरचन्दजी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003825
Book TitlePallival Jain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherNandlal Jain Pallival Bharatpur
Publication Year1963
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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