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का भगद बान
, तिमि तरित पकड सुरमति
कवि देदु कृत
श्री वीरतिलक चौपाई वासुपूज तित्थंकर देउ, जसु तणी कला न लब्भइ छेउ । विज्जलपुरि विधि-चइति निवेसु, वीरतिलक खेतल गउ वेसु ॥१॥ वीरतिलक वीरह कउ राउ, अम्ह उपरि तुहुं करि न पसाउ। 'देदु' भणइ वीनति अवधारि, पढउ चउपइ दुरितु निवारि ॥२॥ नगरकोटि वीरउ सुनारु, तिणि तरिउ दुत्तरु संसारु । जिणिसरसूरि पाय बहु भत्ति, अणुसणु लेउ गयउ सुरगत्ति ।।३।। वलि आविउ तक्खणि गुरुपासि, कहउ सामि अम्हि रहिसउ वासि । गुरि गुण जाणिउ दिन्हु आएसु, विज्जलपुरि तुम्हि करहु निवेसु ॥४॥ वासुपूजु तित्थंकर देउ, तहि अवयरिउ सकल सभेउ । वीरतिलकु तसु दीन्हउ नामु, भगति करइ तसु सगलउ गामु ॥५॥ प्रत्या पूरइ वांछितु करइ, दुष्ट विघन हेला अपहरइ। तउ भविया करइ तुय भगति, वीरतिलक छइ अति घण सक्ति ॥६।। वीरतिलकु छइ बावन (५२) वीरु, मागइ भोग अणावइ खीरु । सुगंध पुप्फ लेउ पूजा करइ, तीह तणा रिपु लीलई हरइ ॥७॥ किवि सोनाणी रूपा पूज, संभलि सामिय करिसउ तूज । मन भितरि छइ मोटउ भाउ, सो अम्हारउ पूरउ ठाउ ॥८॥ किवि आणइ लाडू अति घणा, पूरई त्राट लापसी तणा। सहु को लोभि अछइ संसारि, वीरतिलक सामी अवधारि ॥९॥
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