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________________ १३. हे नाभि-नन्दन ! आपके दर्शन संसार रूपी समुद्र को दूर से रोक देते हैं। - समुद्र से मथित चन्द्रमा आप मेरे मन को कभी नष्ट न होने वाले गुणों से पवित्र कीजिये। १४. आपका अखण्ड ज्ञान रूपी सूर्य महामोह के अन्धकार को क्षण मात्र में नष्ट कर देता है। आपको सुनने मात्र से त्रस स्थावर प्राणी मोह से मुक्त हो जाते हैं। १५. आपका तेज प्रचण्ड सूर्य, चन्द्रमा और दीपक से उत्पन्न प्रकाश से भो - अधिक विस्फुरित है। आपकी करुणामय दृष्टि मात्र से ही भक्तजनों के चित्त अमृत कलश की तरह पवित्र हो जाते हैं। १६. आपके चरण-कमलों में भंवरे की तरह खेलूं। पण्डित जन अपने हृदय में तुम्हारे रूप को आश्रय देकर अपने को बार-बार कृतकृत्य समझते हैं । १७. चंवर डुलाता हुआ एवं माला पहनाता हुआ मैं उस आदि देव को नमस्कार करता हूँ, जिसने पापों का दलन कर दिया है, कषाय रूपी गुफाओं को भेद दिया है। दया रूपी बेल के मूल हैं, आनन्द के कारण हैं, शुभ कारक और कर्मों को नष्ट करने वाले हैं। १८. पृथ्वी को धारण करने के कारण आप धराधीश हैं, महासमुद्र से भी अगाध हैं, क्रोध को निरस्त करने के कारण समय की सीमाओं से पार हैं, मुक्ति को प्राप्त करने के कारण लक्ष्मीपति हैं, मोह से मुक्त होने के कारण मैलरहित हैं तथा ज्ञान व आनन्द को देने वाले हैं। १९. आपके देह में प्रकाशित होने वाली ज्ञान रूपी किरणें दर्शकों के मन _को हरण कर रही है, इन उल्लास युक्त किरणों का जो योग पूर्वक दर्शन करता है, उसे इष्ट लाभ होता है। २०. जो लोग आकाश के आदि अन्त को जानते हैं, अपनी बुद्धि के बल से ... काव्य विधाओं में भी पारंगत हैं। हे अजन्मा तीर्थराज ! ऐसे पण्डित भी आपके गुणों के वर्णन में समर्थ नहीं हैं तब मेरे जैसे मूर्ख का मूल्य ही क्या है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003821
Book TitleNagarkot Kangada Mahatirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherBansilal Kochar Shatvarshiki Abhinandan Samiti
Publication Year
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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