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जम्म जीवित गिरां सफलत्वं मङ्गलंच वृषभेश ! ममाद्य । यत्नतोऽसम समां सनितान्तं, यन्महावृषगते ऽधिगतोऽसि ।।२३॥ इति हि नगर कोट्टालङ्कृते रादिनेतुः स्तवनभजतिपूर्ण हारबन्धाभिधानम् अहह ! सुकृत योगः कोऽपि मेस्फातिमागा दिति वदति यथावत्प्राञ्जलिमघराज ॥२४॥
हिन्दी भावार्थ१. जिसके वाक्य जगत के लिये पवित्र हैं, जो महोक्ष ( वृषभ ) चिह्न से
अंकित है, जिसकी स्वर्णाभ काया विशाल है, जिसने अपने कर्मों को नष्ट कर दिया है, जन्तुओं के लिये जो तात समान है, उस तीर्थंकर (प्रथम तीर्थंकर ) का मैं सम्यक् ज्ञान की वृद्धि के लिये आश्रय ग्रहण
करता हूँ। २. शान्त मूर्ति ऋषभदेव को नमस्कार करने मात्र से ही अनन्त पाप नष्ट
हो जाते हैं, समृद्धि का विस्तार होता है, प्रसन्नता का आगमन होता है,
महासिद्धि प्राप्त होती है, कीति फैलती है। ३. कष्टों को नष्ट करने के लिये आप हथौड़ी हैं, पापों को नष्ट करने में
आप दीवाल को भेदने वाली प्रचण्ड सूर्य किरण हैं, आगम वाक्यों के अगाध ज्ञान में युक्तियुक्त हैं, यौगलिक धर्म को समाप्ति में आप क्षतागा
के समान सिहर हैं। ४. जैसे विष्णु के मुख कमल को देखने से पाप नष्ट हो जाते हैं उसी तरह
आदि तीर्थंकर के दर्शन से ही क्लेशों का समूह शीघ्र नष्ट हो जाता है क्या पर्वत पर उदित सूर्य रूपी आप आदीश्वर भगवान को नमस्कार
करने से ही सम्पूर्ण अंधकार नष्ट नहीं हो जाता है ? ७० ]
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