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________________ १८. कर्म योग से मैं चौरासी लक्ष जीव-योनि में भ्रमण कर रहा हूँ। आपके दर्शन बिना हे नाथ ! मनुष्य, तिर्यंच देव और नरक गति में रहा। १९. अहो ! महामोह का ही ऐसा महत्त्व प्रभाव है कि आप परमेश्वर को देख कर भी हादिक भाव के बिना हे नाथ ! आज तक मैं भव भ्रमण करता हूँ क्योंकि भावशून्य क्रिया कभी फलवती नहीं होती। २०. कभी कदाचित् मनुष्य भव पाकर आपको पाया तो भी वचनों पर हादिक विश्वास नहीं किया (?) किन्तु हे जगत् के नाथ ! अब जानता हूँ कि स्वामिन् आपके प्रसाद से भव समुद्र पार करूंगा। २१. मैंने आज निश्चय ही चिन्तामणि रत्न, कल्पवृक्ष, कामघट व काम धेनु प्राप्त कर ली, जबकि श्रीमद् युगादीश्वर के चरण कमलों में नत भ्रमर की भाँति मेरा मन संलग्न हो गया। २२. आप ही माता-पिता-मित्र और शरणभूत हैं, आप ही मेरे सकल सुख दाता स्वामी हैं आप ही तत्वज्ञ गुरु हैं, आपही रक्षक भ्राता और आपका ही मुझे शरण है। हे स्वामी ! आप प्रसन्न हों! प्रसन्न हों ! मैं और कुछ भी याचना नहीं करता, भगवन् ! मेरा वांछित मुझे दें। २३. श्री उदयचन्द्रसूरि गुरु ने श्री संघ के साथ जैसे विक्रम संवत् १५६५ की चैत्र शुक्ल ८ के शुभ दिन में तीर्थाधिराज की यात्रा की। उन उन भावों को प्राप्त कर शुद्ध वचनों से श्री नाभिराजा के पुत्र ऋषभदेव स्वामी की स्तुति की। २४. ये नाभिराजा के नन्दन जिनेश्वर ही मेरे प्रधान ध्यान ( केन्द्र ) हैं। साधुवर्द्धन ने उत्तम महातीर्थ का ध्यान करके वांछा की। जो रात दिन आपका ध्यान करते हैं, आपके स्तोत्र को पढ़ते हैं वे अपने स्थान में बैठे ही विश्वानंदकारी जय और कल्याणकारी फल प्राप्त करते हैं। नगरकोट मण्डन आदिनाथ का स्तवन समाप्त हुआ। Jain Eduge na lifernational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003821
Book TitleNagarkot Kangada Mahatirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherBansilal Kochar Shatvarshiki Abhinandan Samiti
Publication Year
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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