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जीव-प्रबोध-पद
( १२३ )
सुणि सीख रे भईया,
हां रे मैं तो लेत हुँ तेरी बलईया । सुषि०॥१॥ सुगुरु तणो संयोग लयो है,
तो तू सूत्रारथ के सुणि रे। सुणि॥२॥ तीन तत्त्व धरियै चित हित घर,
एतौ सुध समकित नो घर रे । सुणि०॥३॥ चौकड़ी च्योर कषाय विडारी,
एतो राग द्वष परिहर रे। सुणि॥४॥ सुमता सागर मझ झीली ने,
तूं तो पातिक मल परिहर रे । सुणि॥५॥ करम आठ अरि दूर करी ने,
तूं तो ज्ञानादिक गुण वर रे। सुणि॥६॥ एहवो समकित भल अाराधी,
"अमर" संपद आदर रे । सुणि०॥७॥
जीव-प्रबोध-गीत
राग-सांमेरी रे जीव कोधी जेह कमाई, किधी. रे जीव भोगवीयै तै भाई!रे। तु सुख संपति केरै कारण, कोड कर चतुराई । पूरव पाप प्रसंगे प्राणी, मिलै कहो किम आई रेजीव०॥१॥
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