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जिन-स्तवन
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देव कोहि हाथ जोडि, हाजरी रहाते थे। समोसरण अति सचंग, रंग से रचाते थे।जव०॥३॥ छत्र तीन शीश छाजै, चामर भी बींझाते थे। तखत वेसै वखतवार, दरस चौ दिखाते थे। जब०१४। चौविह स सिंघ पास, सेव भी कराते थे। देशना सुधा समान, सबन कुं सुनाते थे । जब० ॥ भक्ति भ्रमर अमर संग, गंद्रव गुण गाते थे। तांन सेती तान लाय, वाजा भी बजाते थे। जब०१६। अप्सरा मिलि आणंद, नाच भी नचाते थे। तता थेई थेई थेई, बीछीया बजाते थे। जब०७/ दीन के दयाल नाथ, धरम कुँ दिपाते थे। 'अमर' समर अति आणंद, ज्ञान गुण धरातेथे। जब
जिन-स्तवन
राग-अडाणी मल्हार नवल लग्यो है अब जिनजी सै नेहरा, तोन लोक के है सिर सेहरा।नवला ॥१॥ विनय विवेक वणे भल सेहरा, महा गुण ज्ञान सो वृंदावनी मेहरा । नवल०॥२॥
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