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________________ ८. श्री चन्द्रप्रभ स्तवनम् भवान्तर दर्शन और सजीवन मूत्ति के प्रत्यक्ष योग की कामना : १. अप्रमत्तयोगी सन्त आनन्दघनजी की अन्तरात्मा कैवल्यदशा प्रधान अपने सम्पूर्ण निरावरण स्व-स्वरूप-दर्शन के पुष्ट निमित्तकारण के रूप में सर्वज्ञ भगवान की प्रत्यक्ष निश्रा को पाने के लिये छटपटा रही है। उसके बिना इसे क्षणभर भी कहीं चैन नहीं है, अतः भावावेश में आकर अपनी अनुभूति को कह रही है कि हे सङ्गिनी ! या तो तूं ज्ञान धारा में अखण्ड स्थिर रह कर अपने सर्वथा निरावरण स्व-स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन करादे अथवा मार्गदर्शक के रूप में सर्वज्ञ भगवान श्री चन्द्रप्रभ स्वामी के सर्वथा निरावरण मुख-चन्द्र को किसी भी तरह एक बारगी प्रत्यक्षरूप में मुझे दिखलाने की व्यवस्था कर कि जो प्रभु केवल प्रशम-रस के ही कन्द हैं क्योंकि जिनके सभी प्रकार के कल्पना-क्लेश, कर्म-मल और जीवन-मरण आदि दुख-द्वन्द्व सर्वथा मिट गये हैं। अतएव जिनकी कोटानुकोटी देव-देवेन्द्र और नर-नरेन्द्र अनवरत सेवा कर रहे हैं। दोनों में से एक भी उपाय में यदि तू विलम्ब करेगी तो शायद मेरे प्राण-पखेरू उड़ जायेगें, अतः शीघ्र कर । अनुभूति हे अन्तरात्मा ! धैर्य रखो, उतावल मत करो, कर्मस्थिति-बन्ध शिथिल होने दो, तब तक सभी महात्माओं को प्रतीक्षा करनी पड़ी है। ___ अन्तरात्मा-कितना धैर्य रखू ? क्योंकि उक्त दर्शन के बिना ही मैंने अनादि से अब तक का काल व्यर्थ गँवा दिया, और कैसी विषम परिस्थितियों में से मुझे गुजरना पड़ा-जिनका स्मरण हो जाने से अब कैसे जीना ? यह चिन्ता हो रही है। २. मुझे असीम काल तक सूक्ष्म निगोदिया के स्वांगों में रहना पड़ा [ ३५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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