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श्री चन्द्रप्रभ जिन स्तवन (राग केदारो, गौडी-कुमरी रोवै आक्रन्द करै, मुनै कोई मुकावै—ए देशी)
चन्द्रप्रभ मुखचन्द सखी मुनै देखण दे, उपसम रस नो कंद । सखी० । सेवै सुरनर इन्द, सखी०, गत कलिमल दुख दंद ॥ सखी० ॥१॥
सुहम निगोदे न देखियो, सखी०, बादर अतिही बिसेस । सखी। पुढवी आऊ न लेखियो, सखी०, तेऊ वाऊ न लेस ॥ सखी० ॥२॥
वनसपती अति घण दिहा, सखी०, दीठो नहीं दीदार । सखी० । बि ती चौरिदी जल लीहा, सखी०, गति सन्नी पण धार ॥ सखी० ॥३॥
सुर तिरि निरय निवास मां, सखी०, मनुज अनारज साथ । अपज्जता प्रतिभासदां, सखी०, चतुर न चढियो हाथ ॥ सखी० ॥४॥
इम अनेक थल जाणिये, सखी०, दरसण विन जिनदेव । सखी० । आगम थी मति आणिये, सखी०, कोजे निरमल सेव ॥ सखी० ॥५॥
निरमल साधु भगति लही, सखी०, जोग अवंचक होय । किरिया अवंचक तिम सही, सखी०, फल अवंचक जोय ॥ सखी० ॥६॥
प्रेरक अवसर जिनवरु, सखी०, मोहनीय खय थाय । सखी० । कामित पूरण सुरतरु, सखी०, 'आनन्दधन' प्रभु पाय ॥ सखी० ॥७॥
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