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________________ था । वहाँ के शरीर इतने सूक्ष्मतम और निकृष्टतम उत्संगपूर्ण थे कि एक ही शरीर में अनन्त जीव ढूंसे हुये रहते थे। सभी के श्वासोश्वास और आयु समान था। आयु भी इतना स्वल्पतम था कि स्वस्थ मानव के एक ही श्वासोश्वास जितने समय में हम सभी के सभी सतरह-अठारह बार जन्म-मरण के कष्ट वहीं के वहीं सहते थे। वैसे असंख्य शरीर एक ही गोले में बन्द किये हुये थे। वह गोला भी इतना सूक्ष्मतम था कि उसके गमनागमन को कोई ठोस चीज भी नहीं रोक सकती थी, अतः उसे चम-चक्षु नहीं देख सकते। वैसे असंख्य गोले काजल को कुप्पी को तरह सारे विश्व में भरे हुये हैं। उस दशा में मुझे कभी भगवान के आसपास भटकने का मौका मिलता था, इतने पर भी योग्यता न होने के कारण मुझं भगवान के दर्शन न हो सके। फिर कभी मौका पाकर कन्द आदि बादर-निगोदियों की श्रेणी में मेरी भर्ती हुई। तब तो भगवान से मेरी अत्यन्त विशेष दूरी हो गई। वहाँ मुझे दूसरे देहधारी असीम काल तक तरह-तरह के कष्ट देते थे। बाद में कभी नाना प्रकार की पृथ्वी के तो कभी जल के, एवं कभी अग्नि के तो कभी वायु के असंख्य प्रकार के स्वाँगों में बहुत लम्बे अरसे तक मुझे रहना पड़ा कि जहाँ चराचर सभी देहधारियों ने अच्छी तरह से मेरी मिट्टी पलीत की। उस स्थिति में विधाता ने मेरे ललाट में प्रभु-दर्शन विषयक जरा सा भी लेख नहीं लिखा। ३. तदनन्तर अनाज, सब्जी, फल आदि प्रत्येक-वनस्पति के असंख्य स्वाँगों में खाँडना, पीसना, काटना आदि के द्वारा चलते फिरते देहधारियों ने सुदीर्घ काल तक मेरी बड़ी दुर्दशा की। उपरोक्त सभी शरीर केवल स्पर्शेन्द्रिय की व्यक्तता वाले थे। फिर क्रमशः अलस आदि दो-इन्द्रियों वाले, चींटी आदि तीनइन्द्रियों वाले और मक्खी आदि चार-इन्द्रियों वाले तरह-तरह के असंख्य स्वाँगों में मैंने अनेकानेक बार जन्म-मरण आदि त्रास सहे। ३६ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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