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आदि, और स्थावरतीर्थ-तपोभूमि आदि के नियामक होने से तीर्थङ्कर सवगि निर्मल ज्योतिपिण्ड-रूप होने से ज्योतिस्वरूप, उस काल उस क्षेत्र में अद्वितीय होने से असमान ।
४. बहिर्ट ष्टि से अलक्ष्य होने से अलख, कर्म कालिमा से मुक्त होने से निरंजन, सारे विश्व के लिए हितकारी होने से जग-वत्सल, किसी के भी जीवितव्य को नहीं मिटाने वाले होने से सकल जन्तु विश्राम, सदैव मृत्युरोग का औषध देकर उसे मिटाने वाले होने से अभयदान-दाता, पूर्णतः आत्म-स्वरूप में ही रमण करने वाले होसे से पूर्ण आत्माराम ।
५. राग रहित होने से वीतराग, उन्मत्तता कल्पना-तरंग सुखदुख-बुद्धि, भय-शोक निद्रा आलस्य आदि दुष्ट परिणाम दशा से मुक्त होने से अबाधित-योगी।
६. पुरुषार्थी-पुरुषों में सर्वोत्कृष्ट होने से परम पुरूष, बहिअन्तर परम इन तीनों ही आत्म दशा में उत्कृष्ट होने से परमात्मा, आत्मैश्वर्यवानों में उत्कृष्ट होने से परमेश्वर, सभी के अग्रसर होने से प्रधान, मोक्ष-पद के उत्कृष्ट रहस्य को पाने वाले होने से परम-पदार्थ, सभी के लिए उत्कृष्ट भाव से वांछनीय होने से परमेष्ठी, सभी देवों में उत्कृष्ट देव होने से परम देव, सम्पूर्ण ज्ञानी होने से परिज्ञानी।
७. विश्व में सभी प्राणियों का भाग्य निर्माण प्रभु की आराधनाविराधना पर ही निर्भर है, आराधना-विराधना के तीव्र-मन्द तारतम्य से भाग्य का तारतम्य है और भाग्य-तारतम्य के अनुरूप ही यह सृष्टिरचना क्रम एवं प्राणी मात्र का पोषण-क्रम स्वाभाविक चल रहा है, अतएव भाग्य निर्माण, सृष्टि रचना और जीवन पोषण में भगवान ही निमित्त होने से विधि-विधाता, विरंची-ब्रह्मा, विश्वंभर, आध्यात्मिक
और भौतिक तत्वों को साक्षात् करने वाले ऋषि पुत्रों के ईश होने से ऋषीकेश, जगत को अनाथता से छुड़ाने वाले होने से जगनाथ, आत्म
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