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१. आध्यात्मिक सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये तो हमें ईश्वर की जिनदशा ही अभीष्ट, वन्दनीय और आराधनीय होनी चाहिये । क्योंकि उस दशा में राग, द्वेष और अज्ञान आदि का अत्यन्ताभाव और ज्ञान आदि समस्त आत्मैश्वर्य का सम्पूर्ण शुद्ध और स्थायी आविर्भाव है। अजी ! आविर्भाव ही नहीं प्रत्युत जिनदशा के (पार्श्व=) अगलबगल सर्वत्र अनन्त अपार ( सुपास ) सुख ही सुख और आराम ही आराम है। अतः उस दशा में हो ईश्वर सुपार्श्व-सुपास जिन कहलाते हैं।
भगवान सुपार्श्वनाथ परम शान्ति को प्रदान करने के लिये तो मानो साक्षात् सुधारस के ही समुद्र हैं, और जबकि भवसागर को पार होने वालों के लिये वे ही पृथ्वी-शिलामय पुल हैं।
२. इस अवसर्पिणी काल के चौवीस तीर्थङ्कर देवों में से वे जिनवर सातवें गिने जाते हैं। उनके शरण में जाने पर (१) इस लोक का भय, (२) परलोक का भय (३) वेदना भय (४) अरक्षा भय (५) अगुप्ति भय (६) आकस्मिक भय (७) मरण-भय-इन सात प्रकार के महाभयों को साधकीय हृदय में से वे भगा देते हैं। अतः लाला ! तुम सब अपने हृदय-कमल में उनके चरण-कमलों को स्थापन करके एकाग्र और सतक मन से निरन्तर उनकी ही आराधना करो।
३. लाला ! अधिक क्या कहूँ ? किसी भी नाम-रूप में एक उन्हें ही भजो, क्योंकि अभिधा-शक्ति से वे अनेक गुणनिष्पन्न नाम-रूपों को धारण किये हुये हैं। जैसे कि-- ___ कर्मोपद्रव निवारक होने से शिव, सुखकर्ता होने से शंकर, जगत में सर्वोत्कृष्ट एश्वर्यवान् होने से जगदीश, समस्त चिन्मय समृद्धि वाले होने से चिदानन्द, केवल ज्ञान-स्वरूप होने से भगवान, राग आदि शत्रुओं को जीतने वाले होने से जिन, विश्व-पूज्य होने से अर्हन, तिरने के उपाय-रूप में जंगमतीर्थ-साधु संस्था, मानसतीर्थ-अहिंसा, सत्य
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