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७. श्री सुपार्श्व जिन - स्तवनम्
भगवान के विविध नाम-रूपों का रहस्य :
एक बार कोई दशनामी सम्प्रदायों के अनुयायी परस्पर मिल कर धर्म - चर्चा कर रहे थे । प्रत्येक सम्प्रदाय वाले अपनी-अपनी मान्यतानुसार ही ईश्वर की महत्ता सिद्ध करने में प्रयत्नशील थे, फलतः उस चर्चा ने विवाद का स्थान ले लिया । उस विवाद को समीप से जाते हुये बाबा आनन्दघनजी ने सुना, सुनते ही वे वहीं खड़े हो गये । सभ्यव्यक्तियों ने उनकी अद्भुतदशा का स्वागत किया और कोलाहल को शान्त करते हुये यह प्रस्ताव पास किया कि इस विषय में हमें बाबा ही समाधान दें, क्योंकि हमें विश्वास है कि आप मध्यस्थ सन्त हैं । बाबा ने लाभालाभ का कारण देखकर वह बात मंजूर कर ली ।
सभ्य — महात्मन् ! आध्यात्मिक सुख सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये हमें किस भगवान को सर्वोपरि आराध्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए ? कृपया आप अपने अनुभव बल से इस तथ्य पर प्रकाश डालिये |
आनन्दघन - प्यारे पुत्रों ! सर्व प्रथम ईश्वर क्या है और कहाँ है, इस तथ्य को समझ लेना आवश्यक है । राग, द्वेष और अज्ञान से मुक्त केवलज्ञान आदि समस्त आत्मैश्वर्य युक्तता ही ईश्वर का स्वरूप है । वह जगत कर्त्ता नहीं, प्रत्युत भक्त - हृदय स्थित अहं भाव को मिटाने के लिये साक्षीकर्ता माना गया है । क्योंकि विश्व की प्रत्येक घटना ज्ञान किंवा अज्ञान रूप में किसी न किसी संसारी जीव की बुद्धि और प्रयत्न की ही आभारी है । जीवों से भिन्न और कहीं भी ईश्वर तत्त्व नहीं हैं, प्रत्युत प्रत्येक जीव में ही ईश्वरीय शक्ति मौजूद है । जो कि तत्वचिन्तन और जीवन-शुद्धि से व्यक्त हो सकती है । शुद्ध जीवन को ही जिनदशा कहते हैं और जो जिनदशा युक्त हो वही ईश्वर कहलाता है ।
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