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का संयोग किसी का किया हुआ नहीं, वह तो पहले से ही स्वाभाविक है, वैसे ही उपरोक्त कार्मण-शरीर रूप प्रकृति पिण्ड और चैतन्य-पुरुष की जोड़ी का सम्बन्ध भी अनादि का स्वाभाविक ही है। और इस अनादि कालीन संयोगी स्थिति में आत्मा जब तक रहता है तब तक वह संसारी कहलाता है।
४. यह संसारी-बन्ध स्थिति-(१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय और (५) योग, इन पाँच कारणों से टिकी हुई है । इन बन्ध कारणों के प्रयोग द्वारा ही आत्मा स्वयं कम-बन्धनों से बँधता है, और यदि इन कारणों को छोड़ दे तो वह उन बन्धनों से मुक्त होता है। शास्त्रीय परिभाषा में इन बन्ध-कारणों के प्रयोग का नाम आश्रव ओर वियोग का नाम संवर बताया गया है, जो कि क्रमशः त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य है।।
५. तेरे और मेरे बीच जिन-जिन कारणों से जो-जो अन्तर पड़ गया है, वह-वह अन्तर गुणकरण से मिटाया जा सकता है। जैसे कि मिथ्यात्व के कारण पड़े हुये आत्म-प्रतीति के अन्तर को सम्यक्त्व से, अविरति के कारण पड़े हुये आत्म-लक्ष के अन्तर को प्रवृत्ति-मात्र में आत्म-लक्ष की अखण्डता रखाने वाली सर्वविरति से, इसी तरह प्रमाद जन्य अन्तर को अप्रमत्त-अनुभूति से, कषाय जन्य अन्तर को क्षपक-श्रेणी आरोहण से और योग जन्य अन्तर को शैलेशी करण से मिटाया जा सकता है। इसी तरह इन पाँचों ही प्रकार से अन्तर को सर्वथा मिटाने पर तुम शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन स्वयंज्योति सुखधाम स्वरूप अपने सिद्ध-पद पर आरूढ़ होते ही हमसे ऐसे मिल जाओगे जैसे कि ज्योति में ज्योति । फिर भी उस एकाकारता में (सुअंग) स्व द्रव्य का स्वरूप-अस्तित्व नहीं मिटता जैसे कि चन्द्र-सूर्यादि का बिम्ब। इसी तरह इस रहस्य को प्रज्ञावान ज्ञानियों ने चमत्कारपूर्ण निरूपण से सद्ग्रन्थों में बताया है ।
(६) हे अन्तरात्मा ! तेरे और मेरे बीच का बहुत-सा अन्तर तो
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